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भारत में दिखाई नही देने वाले (अदृश्य) ग्रहण का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।

भारत में दिखाई नही देने वाले (अदृश्य) ग्रहण का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।

 

 

 

वैशाख कृष्ण पक्ष अमावस्या गुरूवार 20 अप्रैल 2023 ई का यह कंकणाकृति सूर्य ग्रहण भारत में दिखाई नहीं देगा। यह ग्रहण अण्टार्कटिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी हिन्द महासागर, इण्डोनेशिया, फिलीपींस एवं दक्षिणी प्रशान्त महासागर में दिखाई देगा। ग्रहण का भारतीय समय में स्पर्श प्रातः में 07:05 से ग्रहण मध्य प्रारंभ :- प्रातः 08 बजकर 07 मिनट, ग्रहण अधिकतम :- प्रातः 09 बजकर 47 मिनट, ग्रहण मध्य समाप्त :- प्रातः 11 बजकर 27 मिनट, ग्रहण मोक्ष :- दोपहर 12 बजकर 29 मिनट, ग्रासमान :- 1.013, ग्रहण अवधि :- 05 घण्टा 24 मिनट, ग्रहण मध्य अवधि :- 03 घण्टा 20 मिनट पर होगा। इस ग्रहण का धार्मिक दृष्टि से भारत में कोई महत्व ना होने के कारण यम-नियम, सूतक आदि मान्य नही होगा।

ग्रहणकाल मे करने योग्य पौराणिक विचार अण्टार्कटिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी हिन्द महासागर, इण्डोनेशिया, फिलीपींस एवं दक्षिणी प्रशान्त महासागर आदि प्रदेशो में रहने वाले भारतीयों के लिये (भारत मे मान्य नही)

हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिए ऋषियों ने पात्रों के कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जाएं। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जाएं और धुल कर बह जाएं।

पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चंद्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है। ये दोनों ही छाया की संतान हैं। चंद्रमा और सूर्य की छाया के साथ-साथ चलते हैं। चंद्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमज़ोर पड़ती है। गर्भवती स्त्री को सूर्य-चंद्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है। इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें। ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं।

ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए। भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें। ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति-क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किए गए हैं। कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्‌मण को दान देने का विधान है। कहीं-कहीं वस्त्र, बर्तन धोने का भी नियम है। पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर पिया जाता है। ग्रहण के बाद डोम (शमशान में मृतिक क्रिया करने वाले व्यक्ति) को दान देने का अधिक महात्म्य बताया गया है, क्योंकि डोम को राहु-केतु का स्वरूप माना गया है।

सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्र ग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये। बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चंद्र, जिसका ग्रहण हो, ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए। बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र का त्याग करना, मैथुन करना और भोजन करना – ये सब कार्य वर्जित हैं। ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्देश्य करके जल में जल डाल देना चाहिए। ऐसा करने से देनेवाले को उसका फल प्राप्त होता है और लेने वाले को उसका दोष भी नहीं लगता। ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमंदों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है। ‘देवी भागवत’ में आता है कि भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये।

सूर्य ग्रहण की पौराणिक कथा

सूर्यग्रहण के दौरान घट चुकी है ये घटनाएं

मत्स्य पुराण के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान, निकले अमृत को राहू- केतु ने छीन लिया था, तब से ग्रहण की कथा, इतिहास चला आ रहा है।

द्रौपदी के अपमान का दिन सूर्य ग्रहण का था।

महाभारत का 14वां दिन, सूर्य ग्रहण का था और पूर्ण ग्रहण पर अंधेरा होने पर जयद्रथ का वध किया गया।

जिस दिन श्री कृष्ण की द्वारिका डूबी वह भी सूर्य ग्रहण का दिन था।

सूर्य ग्रहण की पौराणिक कथा

मत्स्यपुराण की कथानुसार, समुद्र मंथन और सूर्य ग्रहण का पौराणिक संबंध है। शास्त्रों के अनुसार सूर्य ग्रहण के पीछे राहु-केतु जिम्मेदार होते हैं। इन दो ग्रहों की सूर्य और चंद्र से दुश्मनी बताई जाती है। यही वजह है कि ग्रहण काल में कोई भी कार्य करने की सलाह नहीं दी जाती है। इस दौरान राहु-केतु का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है। इन दो ग्रहों के बुरे प्रकोप से बचने के लिए ही सूतक लगते हैं। ग्रहण के दौरान मंदिरों तक में प्रवेश निषेध होता है। मान्यता है कि ग्रहण में इन ग्रहों की छाया मनुष्य के बनते कार्य बिगाड़ देती है। शास्त्रों में ग्रहण काल में कोई शुभ कार्य तो दूर सामान्य क्रिया के लिए भी मनाही है। इस ग्रहण के लगने के पीछे एक पौराणिक कथा है।

जब दैत्यों ने तीनों लोक पर अपना अधिकार जमा लिया था तब देवताओं ने भगवान विष्णु से मदद मांगी थी। तीनों लोक को असुरों से बचाने के लिए भगवान विष्णु का आह्वान किया गया था। तब भगवान विष्णु ने देवताओं को क्षीर सागर का मंथन करने के लिए कहा और इस मंथन से निकले अमृत का पान करने के लिए कहा। भगवान विष्णु ने देवताओं को चेताया था कि ध्यान रहे अमृत असुर न पीने पाएं क्योंकि तब इन्हें युद्ध में कभी हराया नहीं जा सकेगा।

भगवान के कहे अनुसार देवताओं ने क्षीर सागर में समुद्र मंथन किया। समुद्र मंथन से निकले अमृत को लेकर देवता और असुरों में लड़ाई हुई। तब भगवान विष्णु ने मोहनी रूप धारण कर एक तरफ देवता और एक तरफ असुरों को बिठा दिया और कहा कि बारी-बारी सबको अमृत मिलेगा। यह सुनकर एक असुर देवताओं के बीच वेश बदल कर बैठ गया, लेकिन चंद्र और सूर्य उसे पहचान गए और भगवान विष्णु को इसकी जानकारी दी, लेकिन तब तक भगवान उसे अमृत दे चुके थे। अमृत गले तक पहुंचा था कि भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से असुर के धड़ को सिर से अलग कर दिया, लेकिन तब तक उसने अमृतपान कर लिया था। हालांकि, अमृत गले से नीच नहीं उतरा था, लेकिन उसका सिर अमर हो गया। सिर राहु बना और धड़ केतु के रूप में अमर हो गया। भेद खोलने के कारण ही राहु और केतु की चंद्र और सूर्य से दुश्मनी हो गई। कालांतर में राहु और केतु को चन्द्रमा और पृथ्वी की छाया के नीचे स्थान प्राप्त हुआ है। उस समय से राहु, सूर्य और चंद्र से द्वेष की भावना रखते हैं, जिससे ग्रहण पड़ता है।

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