आलेख/ विचारमंदसौरमध्यप्रदेश

स्त्री अस्मिता की पर्याय लोकमाता देवी अहिल्याबाई

31मई, त्रि-शताब्दी जन्म जयंती पर विशेष

                                          स्त्री अस्मिता की पर्याय लोकमाता देवी अहिल्याबाई….

-डॉ. रवीन्द्र सोहोनी
सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक नारी शक्ति का चमत्कार समय समय पर देखने को मिला है। अधर्म, अन्याय, असत्य के विरुद्ध नारी शक्ति ने सदैव संघर्ष किया है तथा धर्म, न्याय एवं सत्य की स्थापना में सदैव तत्परता दिखाई है। इसीलिए भारतवर्ष  में नारी शक्ति को आदि शक्ति मानकर पूजा की जाती है।
भारतवर्ष में वीरांगनाओं, विदुषियों, कलानेत्रियों,समाजसेविकाओं तथा देशभक्त महिलाओं की कमी किसी भी युग में नहीं रही। वैदिक और उत्तर वैदिक काल से प्रारम्भ हुई इस सुदीर्घ परम्परा में अपाला, घोषा, मैत्रेई, गार्गी, सूर्य सावित्री से लेकर प्रातः स्मरणीय पुण्यश्लोक लोकमाता देवी अहिल्याबाई बाई होलकर का नाम इस श्रृंखला में सम्मिलित है जिन्होंने अपने समय में देश और समाज का न केवल नेतृत्व किया अपितु एक नई दिशा भी प्रदान की।
औरंगाबाद जिले के वीड तालुका(तहसील) के ग्राम चौंढी के पाटिल(ग्राम प्रधान) मानकोजी शिन्दे और सुशीला देवी शिन्दे के यहां 31मई,1725 को एक तेजस्विनी और अद्भुत बालिका ने जन्म लिया। सनातनी परम्परा से आप्लावित मानकोजी और देवी सुशीला ने वैदिक कालीन अहल्या के नाम से प्रेरित होकर बालिका का नाम अहिल्या रखा।
छुट पुट और बिखरे हुए ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ज्ञात होता है की श्रीमंत मल्हारराव होलकर के पूना प्रवास के दौरान संयोगवश उनकी सैन्य टुकड़ी सूर्यास्त हो जाने के कारण रात्रि विश्राम की दृष्टि से ग्राम चौंढी में रुक गई। गाँव के मन्दिर की सांयकालीन आरती का सुमधुर स्वर श्रीमंत मल्हारराव होलकर के कानों में मिश्री की तरह उतर गया। स्वाभाविक जिज्ञासा के वशीभूत होकर श्रीमंत मल्हारराव होलकर ने बालिका के विषय में जानना चाहा तो ग्रामीणों से उन्हें ज्ञात हुआ की बालिका ग्राम प्रमुख मानकोजी राव शिन्दे की पुत्री अहिल्या हैं। गुणों के जन्मजात पारखी श्रीमंत मल्हारराव होलकर ग्रामीणों के साथ मानकोजी राव शिन्दे से भेंट करने उनके निवास (वाड़े) पर पहुंचे।
पेशवा बाजीराव के महान् सेनानायक एवं मालवा प्रांत के प्रमुख श्रीमंत मल्हारराव होलकर को प्रत्यक्ष अपने निवास पर आया देखकर मानकोजी राव न केवल आश्चर्य चकित थे अपितु कई अर्थों में अभिभूत भी, क्योंकि इस समय तक मल्हारराव होलकर की वीरता और प्रशासनिक कौशल की कीर्ति न केवल मालवा प्रांत अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैल चुकी थी। मानकोजी राव शिन्दे ने अपने को धन्य तथा भाग्य को सौभाग्य मानते हुए मराठा सरदार मल्हारराव होलकर को पूरी श्रद्धा तथा आत्मीयता के साथ आतिथ्य प्रदान कर अपने निवास पर रात्रि विश्राम की मनुहार की।
मल्हारराव होलकर की छठी इंद्री बालिका अहिल्या के भजन का सुमधुर स्वर सुनकर ही सक्रिय और जागृत हो चुकी थी।
मल्हारराव होलकर इस समय अपने पुत्र खंडेराव के लिए वधु तलाश कर ही रहे थे उन्हें अहिल्या के आचरण, व्यवहार, सादगी और धार्मिक प्रवृत्ति ने भीतर तक आकर्षित कर लिया था। इस प्रकार 1733 में लगभग 10या 11 वर्ष की आयु में अहिल्या बाई का विवाह खंडेराव के साथ सम्पन्न हुआ और वें मालवा प्रांत की राजधानी इन्दौर (इंदुर) आ गई। अपनी दीप्त आभा और कार्यशैली से अहिल्या बाई शीघ्र ही अपनी सास गौतमा बाई की भी प्रिय बन गई।
काल का अजस्त्र प्रवाह अपनी गति से गतिवान था,1745 में को उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम मालीराव रखा गया, पुत्र जन्म के लगभग तीन वर्ष पश्चात् उन्हें एक पुत्री हुई जिसका नाम मुक्ताबाई रखा गया।
चौथ वसूली (एक प्रकार का कर) को लेकर अजमेर के जाटों और मल्हारराव होलकर के मध्य 1754 में एक बड़ा युद्ध हुआ जिसे इतिहास में कुम्भेर के युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में मल्हारराव होलकर के पुत्र और अहिल्या बाई के पति एक सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए 17 मार्च,1754 को वीरगति को प्राप्त हुए। तत्कालीन परम्पराओं और परिस्थितियों के अनुरूप देवी अहिल्याबाई ने निश्चय किया कि वे अपने पति के साथ सती हो जाएगी।
काफ़ी परिश्रम के बाद मल्हारराव होलकर अपनी पुत्रवधू अहिल्या को यह समझाने में सफ़ल रहे कि मुक्ति और देवत्व का मार्ग सती होने से नहीं अपितु अपनी प्रजा के हितों की रक्षा तथा लोककल्याण से प्रशस्त होता है। अन्ततोगत्वा श्रीमंत मल्हारराव होलकर अहिल्या बाई के सती होने के निर्णय को बदलवाने में सफ़ल रहे।
वर्ष 1754 में अपने इकलौते पुत्र खंडेराव की असामयिक मृत्यु ने मल्हारराव होलकर को भीतर तक तोड़ कर रख दिया था, इस कारण वे अस्वस्थ्य और निराश रहने लगें थे। इस कठिन दौर में उन्होंने पुत्रवधू को पुत्री सा मान देते हुए अहिल्याबाई को राजकरण के कार्यों में न केवल शिक्षित किया अपितु सही अर्थों में दक्ष भी बनाया। मल्हारराव एक दूरदृष्टि वाले शासक थे पुत्र के वीरगति को प्राप्त होने के पूर्व के जितने भी सैन्य अभियानों पर जब वे जाते थे उस समय से ही वे राज्य का कार्यभार अहिल्या बाई को सौंपकर जाते रहे थे। सैन्य अभियान से लौटने के पश्चात् देवी अहिल्याबाई के साथ बैठकर मालवा प्रांत का प्रशासनिक संचालन कैसे हुआ इस विषय की सूक्ष्म समीक्षा भी करते थे, और यही वह कारण है जिसने अहिल्याबाई को न केवल एक सुधि और सफल प्रशासक बनाया अपितु उनके व्यक्तित्व को लोकमाता अहिल्याबाई में परिवर्तित करने का कार्य किया।
इतिहास अपने शासकों, नायकों, प्रशासकों और कर्णधारों का मूल्यांकन उनके द्वारा किए गए कार्यों,नवाचार और लोककल्याणकारी निर्णयों के चश्में से करता है।
इन आधारभूत मूल्यों और मानदंडों के आधार पर लोकमाता अहिल्या बाई का समग्र मूल्यांकन निरपेक्ष भाव से किया जाए तो हम यह पाते हैं कि वे  उस युग में लोककल्याण की नींव रखने वाली साध्वी और दार्शनिक शासिका थीं। उन्होंने अपनी प्रशासनिक कौशल का परिचय देते हुए विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतमाला से लेकर नर्मदा नदी के दक्षिणी छोर तक फैले वनवासियों के आतंक को न केवल समाप्त किया बल्कि इस दुर्गम क्षेत्र में उन्हें व्यापारियों, आमजनों की सुरक्षा का भार सौंपकर राजस्व में भागीदारी प्रदान करने के साथ ही सम्मानपूर्वक समाज की मुख्य धारा में जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य कर समय के शिलालेख पर अपना नाम दर्ज कर दिया। इन्दौर से अपनी राजधानी को पश्चिमी निमाड़ में महेश्वर में स्थानांतरित कर एक नए युग का प्रवर्तन किया। होलकर राजवंश की न्याय प्रणाली को और सुदृढ़ करते हुए उसे विकेंद्रित किया और पंचायतों को बहुत से न्यायिक अधिकारों का हस्तांतरण भी किया। राजस्व प्रणाली को नए पंख दिए और होलकरों के वार्षिक राजस्व को 75 लाख से बढ़ाकर सवा करोड़ कर दिया। महेश्वर जैसे ग़रीब, पिछड़े तथा वनवासी बाहुल्य वाले क्षेत्र को ना केवल राजधानी के रूप में बल्कि सही अर्थों में अपनी कर्मभूमि बनाया और यहीं पर माता अहिल्या ने होलकरों की एक टकसाल स्थापित की । यहां के मेहनतकश लोगों को ध्यान में रखते हुए गुजरात से बुनकरों को लाकर यहां बसाया और टेक्सटाइल उद्योग का श्रीगणेश किया जो आज भी महेश्वरी साड़ी के नाम से पूरी दुनिया में अपना परचम लहरा रहा है। समाज के आधुनिकीरण के साथ ही शिक्षा, साहित्य और कला उनके जीवन की धूरी थे, इस हेतु देवी अहिल्याबाई ने विद्वानों, कलाकारों, साहित्य मनीषियों को राजकीय आश्रय प्रदान किया। होलकर राज्य की प्रजा और उसकी सीमाएं सुरक्षित रहें इस हेतु आपने सेना के आधुनिकीरण का बीड़ा भी उठाया तथा होलकर सेना को प्रशिक्षित करने के लिए कर्नल जे. पी. बाइड को 2000 मासिक वेतन पर प्रशिक्षक नियुक्त किया। महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से माता अहिल्या बाई ने 500 महिलाओं की एक सैन्य टुकड़ी का गठन भी किया था जो उस समय की दृष्टि से बहुत बड़ा और क्रांतिकारी निर्णय था। धर्म और सनातन संस्कृति उनके जीवन का प्राण तत्व था। मन्दिरों, घाटों, सड़कों, धर्मशालाओं और आवागमन के मार्गों का निर्माण और  उनके जीर्णाेद्धार की सूची इतनी विशाल है की उसी पर एक अध्याय लिखा जा सकता है। काशी, मथुरा, सोमनाथ, पंढरपुर, अयोध्या से लेकर केदारनाथ धाम तक उनकी धर्म ध्वजा आज भी लहरा रही है, जो सही अर्थों में प्रणम्य है।
उत्तर मध्यकाल के भारतीय इतिहास में 11दिसम्बर, 1767 में उनके राज्याभिषेक की तिथि से लेकर उनकी मृत्यु 13 अगस्त, 1795 के दिन तक का उनका 28 वर्ष,11 माह 19 दिन का शासन काल स्वर्णा अक्षरों में अंकित है। पुण्यश्लोक लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर को उनकी तीन सौ वीं जन्म जयंती पर एक विनम्र आदरांजलि…… इति शुभम्।

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