समाज को खुद तो सोचना पड़ेगा, हम कहाँ जा रहे है
-लेखक नरेंद्र नाहटा
पूर्व कैबिनेट मंत्री मप्र शासन {मंदसौर}
अक्सर यह कहा जाता है कि फिल्में समाज को बिगाड़ती है। बहुत समय पहले जावेद अख्तर का एक लेख मैंने पढ़ा था। उनने लिखा , फिल्मों का असर समाज पर नहीं , समाज का असर फिल्मों पर पड़ता है। फिल्मकार वही फिल्मे बनाता है जो समाज देखना पसंद करता है। मै सहमत हूँ। जो फिल्मकार समाज की बदलती पसंद को पहचान कर ऐसी फिल्म बनाने की पहल कर लेते है , वे सफल हो जाते है और फिर वह ट्रेंड बन जाता है। सन 60 के दशक तक नौशाद, शंकर जयकिशन से लगा कर वसंत देसाई और सी रामचंद्र तक के गीत संगीत को पसंद करते थे। उसी दशक के उत्तरार्ध में भप्पी लाहिरी ने बदलती हुई पीढ़ी को पहचाना , डिस्को संगीत आ गया। नौशाद आउट ऑफ़ डेट हो गए। सत्तर के दशक में जनता प्रशासन में बढ़ते भ्र्षटाचार से नाराज थी तभी अर्ध सत्य और बादमे अमिताभ बच्चन की जंजीर और फिर दीवार आई। एंग्री यंग मेन वाली भूमिका।नईपीढ़ी ने पसंद किया और ट्रेंड बन गया। आर्थिक उदारीकरण के बाद समाज में पैसा बढ़ा और फिल्मे केवल मनोरंजन के लिए देखी जाने लगी। अब उनसे किसी सन्देश की उम्मीद नहीं थी। कला फिल्मों का दौर समाप्त हो गया। इक्कीसवी सदी के शुरुआत में केवल मौज मस्ती और मनोरंजन देखा जाने लगा। कागज़ के फूल जैसी फिल्मे अब कहाँ बनती है।
मैं यह बात इसलिए लिख रहा हूँ कि पिछले दिनों फिल्म एनिमल आई।उसके पहले पठान। बहुत सफल रही।जनता ने 500 करोड के क्लब मे पहुचा दिया। कारण हिंसा का अतिरेक। तब आपको नहीं लगता समाज बदला है । उसकी सोच और पसंद विकृत हुए है ,उसे हिंसा ही पसंद है, उसी मे मनोरंजन मिलता है। सडक पर किसी को पिटते,मरते देख वह बचाता नही वीडियो बनाता है,वायरल करने के लिए।
जब धर्म विशेष के लोग हिंसा करते है तो हम बात को कहीं और मोड़ देकर सचाई से मुंह मोड़ लेते है। पर जब हम रोज़ अखबार में पढ़ते है पत्नी ने प्रेमी के साथ मिल कर पति को मरवा दिया , मां ने चार साल के बेटे को मार दिया , प्रेमी ने प्रेमिका को मरवा दिया,मासूम बच्ची और अपनी ही बेटी के साथ दुर्व्यवहार जैसी खबरे, तब धर्म नहीं देखते, चटखारे से पढ़ते है और छोड़ देते है। बहुतों ने समाज विज्ञान पढ़ा होगा। समाज विज्ञान बदलते समाज पर ही शोध करता है। वह भी चुप है। क्या आपको नहीं लगता संस्कारो और संस्कृति वाले देश मे हम उन्हें कही बहुत पीछे छोड़ आये है।
बहुत समय पहले शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन आई थी। भरपूर गालियां थी। सिनेमा हाल में बैठा तब का दर्शक वह भाषा सुन कर असहज हो जाता था। फिल्म फ़ैल हो गई। अब ऐसी फिल्मे और OTT की भाषा खूब पसंद की जा रही है। फिल्मों ने हमें यह भाषा सिखाई या हमारी पसंद ने फिल्मो की भाषा बदल दी।
बदलते समाज के अनुसार फिल्मे और राजनीति तो अपने को ढाल लेंगे, पर समाज को खुद तो सोचना पड़ेगा। हम कहाँ जा रहे है।
मौज ,मस्ती और मनोरंजन वाले समय में कौन मेरी पोस्ट पसंद करेगा , फिर भी लिख रहा हूँ।
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