आलेख/ विचारनर्मदापुरम संभागहोशंगाबाद

श्मशान की भूख और पाखंड का उत्सव

श्मशान की भूख और पाखंड का उत्सव

 

लेखक – राकेश घूमन्तु गोल्डी (अक्खड़ कलम)
होशंगाबाद मध्यप्रदेश 

आज सुबह निशु भैया के स्टेटस पर उस पेंसिल स्केच को देखा तो रूह कांप गई। वह स्केच महज कागज़ पर उकेरी गई काली लकीरें नहीं हैं, बल्कि हमारे आधुनिक और तथाकथित ‘सभ्य’ समाज का एक्सरे है। एक इंसान जो उलझनों का पुलिंदा बना बैठा है और उस पर सवार तीन कौवे—यह आज के समय का सबसे नग्न सत्य है।

शून्य चेहरा और उलझा हुआ

गौर से देखिए उस स्केच को, उस आकृति का कोई चेहरा नहीं है। चेहरा पहचान होता है, लेकिन आज के दौर में इंसान की अपनी कोई मौलिक पहचान बची ही नहीं है। वह तो सिर्फ सामाजिक दबावों, रस्मों, डर और दिखावे की बारीक काली रेखाओं का एक जाल है। हम भीतर से इतने उलझ चुके हैं कि हमारा अस्तित्व एक ‘ब्लैक होल’ की तरह हो गया है। हम ‘होने’ का नाटक तो कर रहे हैं, पर वास्तव में हम ‘खाली’ हैं। यह खालीपन ही पाखंड का जन्मदाता है।

 मृत्यु भोज – संवेदना का सौदा और ‘तेरहवीं’ का आतंक

चित्र में बैठे कौवे शायद उस ‘मृत्यु भोज’ की प्रतीक्षा में हैं, जिसे हमारा समाज ‘मर्यादा’ और ‘संस्कार’ का नाम देता है। कितनी विडंबना है कि जिस घर में मातम पसरा हो, जहाँ बिलखते बच्चे और बेवा की चीखें गूँज रही हों, वहाँ पूरा मोहल्ला ‘नुक्ता’ या ‘तेरहवीं’ के नाम पर पूड़ियां छानने पहुँच जाता है।

“अरे ओ अंधे समाज! किसी के कलेजे के टुकड़े के बिछड़ने पर तू अपना पेट भरने की सोचता है? जिस बाप ने पूरी उम्र तिनका-तिनका जोड़कर घर बनाया, उसकी मौत पर उसके बेटों को कर्जदार बनाकर तू कौन सा पुण्य कमा रहा है? यह ‘मृत्यु भोज’ नहीं है, यह संवेदनाओं का कत्ल है। यह धर्म नहीं, अधर्म की पराकाष्ठा है।”

तीन कौवे – पाखंड, रूढ़ि और लोक-लाज

ये तीन कौवे तीन राक्षसों की तरह उस आकृति पर बैठे हैं-

पहला कौवा (रूढ़िवादिता) जो कहता है कि ‘बाप-दादा के जमाने से ऐसा ही होता आया है, तुम्हें भी करना होगा।’ चाहे घर बिक जाए, पर रस्म नहीं रुकनी चाहिए।

दूसरा कौवा (लोक-लाज) ‘लोग क्या कहेंगे?’ यह सबसे बड़ा मानसिक रोग है। जीते जी बूढ़े बाप को वृद्धाश्रम छोड़ आए, पर मरने पर शाही दावत दे रहे हैं ताकि दुनिया में नाम हो।

तीसरा कौवा (धार्मिक ढोंग) वे बिचौलिए जो डराते हैं कि अगर यह दान-पुण्य नहीं किया तो आत्मा भटकती रहेगी। क्या ईश्वर इतना निर्दयी है कि वह एक दावत के बदले किसी की मुक्ति का फैसला करेगा?

आज का संदर्भ – जीवन और मृत्यु के बीच का पाखंड

आज के दौर में हम रिश्तों को ‘जीते जी’ नहीं निभाते, बल्कि ‘मरने के बाद’ विज्ञापित करते हैं। फोटो में कौवे शांत बैठे हैं, वे जानते हैं कि यह इंसान तो पहले ही मर चुका है। वह अपनी सोच में मर चुका है, अपनी करुणा में मर चुका है। मृत्यु सत्य है, लेकिन मृत्यु का उत्सव मनाना और उसे एक बोझिल रस्म बना देना एक मानसिक बीमारी है। हम कौवों को छत पर बुलाकर रोटी खिलाते हैं कि शायद पूर्वज तृप्त हो जाएंगे, लेकिन नीचे खड़े किसी गरीब की भूख हमें दिखाई नहीं देती। यह चश्मा उतारना होगा।

यह चित्र हमें झकझोरता है कि हम इन काली लकीरों से बाहर निकलें। मृत्यु को एक मौन सम्मान दें, न कि उसे एक तमाशा बनाएं। पूर्वजों का असली तर्पण यह नहीं है कि आप दुनिया को खिलाएं, बल्कि यह है कि आप उनके आदर्शों को जिएं।

जब तक समाज में ‘मृत्यु भोज’ जैसी कुरीतियां जीवित हैं, तब तक हम उस स्केच की तरह केवल उलझी हुई रेखाओं का पुतला मात्र रहेंगे—जिसके सिर पर पाखंड के कौवे हमेशा सवार रहेंगे।

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