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मंदसौर में अक़ीदत के साथ मनाया गया मोहर्रम,ताज़ियों के जुलूस में शामिल हुए अज़ादारों के क़दम

मंदसौर में अक़ीदत के साथ मनाया गया मोहर्रम,ताज़ियों के जुलूस में शामिल हुए अज़ादारों के क़दम

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके 72 वफ़ादार साथियों की अज़ीम कुर्बानी की याद में निकले ताज़िए, शहर में जगह-जगह सबीलें और लंगर का आयोजन

मंदसौर। शहर में इस वर्ष भी मोहर्रम का पर्व अकीदत और एहतराम के साथ मनाया गया। इस्लामी कैलेंडर के पहले महीने मोहर्रम की 8 तारीख यानी 4 जुलाई को,शहर के नई आबादी क्षेत्र में ताज़ियों का जुलूस निकाला गया। इस मौके पर शहर ही नहीं, बल्कि आसपास के इलाकों से भी अज़ादार बड़ी संख्या में शरीक हुए।

नई आबादी में निकलने वाले क़रीब 7 ताज़िए—नई आबादी, संजीत नाका, पल्ली झोपड़ी, नाहर सैयद, नूर कॉलोनी, इंद्रा कॉलोनी और अभिनंदन कॉलोनी—एक जगह जमा होकर मरकज़ी जुलूस का हिस्सा बने।

नई आबादी ताज़िया कमेटी के सदर सादिक शेख ने बताया कि मोहर्रम सिर्फ शोक या मातम का महीना नहीं, बल्कि यह सब्र, क़ुर्बानी और इंसाफ़ के लिए उठ खड़े होने का पैग़ाम देता है। उन्होंने कहा कि हर साल की तरह इस बार भी कव्वालियों की सदा के साथ जुलूस निकाला गया और जगह-जगह सबीलें व लंगर का इंतज़ाम किया गया।

इस मौके पर लोगों को हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके साथियों की अज़ीम कुर्बानी की याद दिलाई गई, जिन्होंने 680 ईस्वी यानी 61 हिजरी में कर्बला के तपते रेगिस्तान में पानी की एक बूँद न पीते हुए भी हक़ और इंसाफ़ की राह में जान क़ुर्बान कर दी। उनके साथियों में बुज़ुर्ग, जवान, बच्चे और यहां तक कि छह माह का मासूम बेटा अली असगर (अ.स.) भी शामिल था।

ये 72 फ़िदाई जान निसार साथी, जिनमें हज़रत अब्बास (अ.स.), हज़रत अली अकबर (अ.स.), मुस्लिम बिन औसजा, ज़ुहैर बिन क़ैन, हबीब इब्न मज़ाहिर जैसे बहादुर और वफ़ादार लोग शामिल थे, सभी ने यज़ीदी हुकूमत के ज़ुल्म के खिलाफ डटकर मुकाबला किया और इस्लाम के असल उसूलों की हिफाज़त की।

मोहर्रम की 1 से 10 तारीख तक मजलिसें और तकरीरें होती हैं, जिनमें उलमा-ए-किराम इमाम हुसैन की अज़ीम शहादत की अहमियत पर रौशनी डालते हैं। साथ ही शहर में जगह-जगह सबीलों का इंतज़ाम किया जाता है, जहाँ तबर्रुक, शरबत और ठंडे पानी का इंतज़ाम लोगों की खिदमत के लिए किया जाता है।

इस जुलूस ने यह संदेश दिया कि मोहर्रम सिर्फ एक मज़हबी रस्म नहीं, बल्कि एक इंसानी जज़्बे का वाक़िआ है—ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने की, और इंसाफ़ के लिए हर कुर्बानी देने का सबक़ देता है।

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