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कवि कालिदास बचपन से ही स्वाभिमानी और विद्वान थे  -रमेशचन्द्र चन्द्रे

कालिदास मूर्ख नहीं थे….
कवि कालिदास बचपन से ही स्वाभिमानी और विद्वान थे  -रमेशचन्द्र चन्द्रे

कालिदास के बारे में यह प्रसिद्ध है कि “वह जिस  डाली पर बैठा था उसी को काट रहा था”, यह कहानी पूर्णतः: भारतीय विद्वानों की प्रतिष्ठा गिराने का षड्यंत्र था। जबकि कालिदास उज्जैन के निकट अपने गुरु के आश्रम में रहकर संस्कृत का अध्ययन करते थे तथा आश्रम की गायों को गुरु के आदेश से चराने के लिए जंगल जाया करते थे। वे जातिगत चरवाहे नहीं थे।
वर्तमान उज्जैन से कुछ दूरी पर अवंतिका राज्य के राजा गंधर्वसेन सोनकच्छ के निकट गंधर्वपुरी में अपनी राजधानी से राज्य का संचालन करते थे वह बड़े वीर, प्रतापी, कला प्रेमी, तथा हिंदुत्व निष्ठ थे।
जब कालिदास की विद्वत्ता, ज्ञान तथा काव्य प्रतिभा कि उन्हें जानकारी मिली तो उन्होंने उसे अपने राज दरबार में बुलाया तथा कालिदास से कहा कि आप हमारे दरबार के कवि बन जाइए किंतु कालिदास ने कहा कि- मैं प्रकृति का चितेरा कवि हूं मैं राजमहल में रहकर आपकी प्रशंसा में कविताएं नहीं पढ़ सकता मुझे तो स्वच्छंदता पूर्वक प्रकृति के बीच में ही रहने की रुचि है और उसने राजा गंधर्व सेन को मना कर दिया।
राजा ने अनेक विद्वानों को उन्हें मनाने के लिए भेजा किंतु कालिदास लगातार मना करते रहे तथा वे उन्हीं विद्वानों के सामने एक पेड़ पर चढ़कर कुल्हाड़ी से उसकी डाली काटने लगे पर विद्वानों ने देखा कि यह तो जिस डाली पर बैठा है उसी के मूल को काट रहा है तो उन्होंने कालिदास को चेताया कि तुम गिर जाओगे तब कालिदास ने उन्हें समझाया कि’ मैं आप लोगों को समझाने के लिए ही जिस डाली पर बैठा हूं, उसे काट रहा हूं क्योंकि मैंने राजाज्ञा की अवहेलना की है इसलिए उसका दंड मुझे मिल सकता है किंतु मैं इस प्रकृति की गोद को नहीं छोड़ सकता। इसलिए मैं अपने अहित को स्वीकार कर सकता हूं किंतु अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकता। उसके बाद विद्वानों उसे पूरे राज्य में मूर्ख कहना शुरू किया किंतु कालिदास सतत अपनी साधना में लगे रहे।
राजा गंधर्व सेन की मृत्यु के उनके बड़े पुत्र भर्तहरि को राज्य मिला तथा उनके राज्य छोड़ने पर विक्रमादित्य अवंतिका के राजा बने एवं विक्रमादित्य ने गंधर्वपुरी को त्याग कर अपनी राजधानी उज्जैयनी को बनाया।
इधर कालिदास भी किशोरावस्था में आ गए थे किंतु उन्हें अपनी विद्वत्ता एवं प्रतिभा को प्रदर्शित करने का कोई मंच नहीं मिला, क्योंकि अवंतिका के विद्वान उसे महान मूर्ख कह कर संबोधित किया करते थे।
राजा विक्रमादित्य की एक कन्या थी विद्योत्तमा, जो बहुत ही विद्वान तथा शास्त्रार्थ  करने में प्रवीण थी किंतु उसे अपनी विद्वता पर बहुत अहंकार था। इस कारण उसने अपने गुरु को भी समुचित सम्मान प्रदान नहीं किया। इसलिए गुरु ने सोचा कि इसका विवाह किसी महान मूर्ख के साथ कर देना चाहिए ताकि इसका अहंकार चूर-चूर हो जाए।
इसी श्रृंखला में महामूर्ख की उपाधि से से जाने जाने वाले कालिदास का नाम राजा के सामने प्रस्तुत किया गया।
विक्रमादित्य ने कहा कि- जो मेरी पुत्री को शास्त्रार्थ में हरा देगा मैं उसी से उसका विवाह करूंगा।
इधर कालिदास को विद्वानों ने कहा कि राजा की पुत्री विद्योत्तमा शास्त्रार्थ करना चाहती है अतः आप बहुत विद्वान हैं किंतु विद्योत्तमा केवल संकेतों की भाषा में शास्त्रार्थ करेगी इसलिए तुम्हारी तैयारी हो तो तुम शास्त्रार्थ करो।
कालिदास ने सोचा कि मेरी विद्वता के प्रदर्शन का इससे अच्छा अवसर प्राप्त नहीं हो सकता और उन्होंने हां भरदी।
निश्चित दिन विद्योत्तमा और कालिदास के बीच शास्त्रार्थ संकेतों में शुरू हुआ जिसकी कहानी हम सभी को मालूम है। इसके बाद विद्योत्तमा ने अपनी हार मानकर कालिदास को ही अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया।
किंतु कालिदास विद्योत्तमा से भी ज्यादा विद्वान थे, इसलिए पत्नी विद्योत्तमा का अहंकार इसे स्वीकार नहीं कर पाया तथा कालिदास उसने अनेक बार अपमान भी किया, जिसकी वजह से कालिदास ने घर छोड़ दिया। निरंतर 10 वर्षों तक वह अज्ञातवास पर रहे तथा उन्होंने इस अज्ञातवास में ग्रंथ लिखा उनका प्रथम खंडकाव्य “ऋतुसंहार” था। इस ग्रंथ की चर्चा अवंतिका सहित संपूर्ण भारत में हुई इसके बाद कालिदास द्वारा लिखित अनेक रचनाएं प्रसिद्धि प्राप्त करने लगी तथा कालिदास एक विद्वान कवि के रूप में हुए प्रतिष्ठित हो गए। इनके द्वारा दो महाकाव्य कुमारसंभव तथा रघुवंश एवं खंडकाव्य मेघदूतम की रचना की इसके साथ ही तीन नाटक विक्रमोवर्शीय मालविकाग्निमित्र एवं अभिज्ञान शाकुंतलम् लिखे गए।
उनकी काव्य प्रतिभा के कारण इन्हें विक्रमादित्य के नवरत्नों में स्थान प्राप्त हुआ।
कुछ समय पश्चात विद्योत्तमा द्वारा कवि कालिदास से क्षमा मांगने के बाद तथा राजा विक्रमादित्य ने प्रसन्न होकर उन्हें कश्मीर का राज्य प्रदान कर दिया।
इसलिए कवि कालिदास को मूर्ख कह कर बदनाम करने का षड्यंत्र उस जमाने की विद्वानों ने तथा राजा गंधर्वसेन की आज्ञा की अवहेलना करने के कारण किया गया था, जिसका जवाब उन्होंने जिस डाल पर बैठकर उसी डाल को काटने से दिया था, यह एक साहित्यकार एक विद्वान की स्वतंत्रता को कोई छीन नहीं सकता इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
लेखक का अस्वीकरण
उक्त कहानी का कोई सशक्त ऐतिहासिक आधार नहीं है यह कालिदास के संबंध में उपलब्ध साहित्य एवं जानकारी के आधार पर पूर्णतः काल्पनिक रूप से लिखी गई है।
रमेशचन्द्र चन्द्रे

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