आलेख/ विचारउत्तर प्रदेशलखनऊ

दिसम्बर ठीक वैसा ही होता है जैसे निरुपाय मृत्यु की प्रतिक्षा में पड़े रोगी की आखिरी साँसे चल रही हो

 

दिसम्बर ठीक वैसा ही होता है जैसे निरुपाय मृत्यु की प्रतिक्षा में पड़े रोगी की आखिरी साँसे चल रही हो, जैसे कारावास में बंद कैदी से मुलाकात के अंतिम क्षण हो, जैसे कोई मुसाफ़िर अलविदा कहते वक़्त आखिरी बार हाथ हिला रहा हो, जैसे फांसी की सजा पाया कोई व्यक्ति हमसे अंतिम विदा ले रहा हो।

विषाद में डूबे चित्त के लिए दिसम्बर सबसे माकूल महीना है क्योंकि दिसम्बर की ठंडी, सर्द, एकांत तासीर दुःखों की व्याख्याओं में डूब जाने के लिए अनुकूल है और विषाद में डूबे चित्त को भला और क्या चाहिए?

वो बस यही चाहता है कि दुःख उसकी आत्मा पर व्याप जाएं!

सुबह का ताम्रवर्ण सूरज दूर क्षितिज से यूँ अकेला निकलता है मानों दुःख के पहाड़ को काटकर निकला हो और फिर हांफता हुआ सा, थका-मांदा सा, कपासी मेघ से बचता हुआ सा ठीक वैसे ही चलता है जैसे दुःखों से टूटकर कोई व्यक्ति इस संसार में चलता है।

दोपहर ठीक वैसी ही बोझिल, सुस्ताई हुई सी, उदासीन होती है जैसे शोक में डूबे घर का आंगन होता है और हम उस आंगन में बैठकर मानों दुःखों का रोजनामचा बांच रहे हो।

शामें धीरे-धीरे वैसे ही इस धरा पर उतरती है जैसे आंख से आंसू लुढ़कते हैं और फिर रात में वैसे ही विलीन हो जाती है जैसे हमारे लबों की मुस्कान आँसुओ में विलीन हो जाती है।

रातें ठीक वैसे ही हमारी जिन्दगी को कैद रखती है जैसे आजीवन कारावास के बन्दी की करवटें एक कम्बल व कोठरी में कैद होती है।

हम बस करवटों, बैचेनियों, नींद की गोलियों के सूत कातकर उसी में उलझे रहते हैं।

एक ठंडी, सर्द, तन्हाई, हम और हमारा विषाद बस कुल जमा यही कमाई है दिसम्बरी रातों की।

प्रफुल्ल सिंह “रिक्त संवेदनाएं”

शोध सदस्य

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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