घुमन्तु समुदाय की आज भी स्थिति, समुदाय की समस्या और हकीकत से रूबरू करवाएगी

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लेखक -डेजर्ट फेलो – राकेश यादव
होशंगाबाद मध्यप्रदेश
मैं 10 सालों से सोशल सेक्टर मे काम कर रहा हूं। ये मुझे अवसर या कहे एक बहुत बढ़िया मेरे विकास का अवसर कहे? या मेरा संघर्ष कहिए, मैं इस क्षेत्र से जुड़ सका । 12 से ज्यादा सामाजिक संगठनों व 26 से ज्यादा जिन्दा सामाजिक पहलों मे अपनी भूमिका को देखा है और कार्य किया है, काम करते हुए मेरी विचारधारा बनी है और इसी दौरान मैंने बहुत सी बातें जानीं हैं। जैसे फेमिनिज़्म क्या है, जाति विरोधी आंदोलन क्या है, सामाजिक राजनीती क्या है,जेंडर आधारित भेदभाव क्या है, युवाओं के खुद के सपने व स्वयं से जुड़े मुद्दे क्या है,और भी वगैरह। क़रीब 10 साल सोशल सेक्टर मे काम करने के बाद, मेरी चल रही फेल्लोशिप मे जमीनी स्तर पर घुमंतू शब्द से रूबरू हुआ तो लगा घुमंतू मतलव घूमना फिरना और जीवन यापन करना,
लेकिन कुछ समय बिता ही था इस फेलोशिप और घुमंतू के साथ घूमंतू समुदाय जुडा जमीनी स्तर पर जब बावरिया समुदाय के लोगो से मिलाने का मौका मिला तो एक अलग ही मन में खलबली चली, जब आंकडे देखने गया तो मालुम हुआ की भारत में डी-अधिसूचित समुदाय-425 है और खानाबदोश समुदाय-810 साथ ही, अर्ध खानाबदोश-27 है लेकिन अर्ध खानाबदोश समुदाय राजस्थान मे पुरे भारत में से 13 समुदाय है, खानाबदोश समुदाय-29 डी-अधिसूचित समुदाय-13 राजस्थान मे है, और ये आकडे सरकार के है लेकिन एक सवाल बड़ा ये की मे पक्के दावे के साथ कह सकता हु की ये अकड़ा जमीनी स्तर पर सही मायने और पूर्ण रूप से जनगणना करने जायेंगे तो आंकडे और तस्वीर दूसरी होगी जो इन समुदाय की समस्या और हकीकत से रूबरू करवाएगी।
एक लम्बा समय इस सेक्टर मे बिताने के बाद आज जब संगठन या संस्था के बारे घुमंतू और विमुक्त जनजातियों (नोमैडिक एंड डिनोटिफाइट ट्राइब – एनटी-डीएनटी) तक समाजसेवी संगठन भी ठीक तरह से नहीं पहुंच पा रहे हैं। अंग्रेज़ी राज के दौरान घुमंतू और विमुक्त जनजातियों को बहुत ही अन्यायपूर्ण और गलत तरीके से अपराधी समुदाय घोषित कर दिया गया था। तब से ये समुदाय बदनामी और भेदभाव झेल रहे हैं। यहां तक कि 1952 में आपराधिक जनजाति अधिनियम को खत्म किए जाने के बाद भी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है।
सोशल सेक्टर की बात करें तो उनके पास घुमंतू और विमुक्त जनजातीय समुदायों से संवाद करने के लिए न तो भाषा है और न ही इनकी कठिनाइयों का अंदाज़ा लगा पाने के लिए जरूरी समझ। अगर हम सरकार की भी बात करे तो जन कल्याणकारी योजनाएं और विकास पहलें तैयार करते हुए इन समुदायों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। इस तरह बार-बार होने वाले भेदभाव और उपेक्षा का उनकी मानसिक सेहत पर क्या और गहरा असर पड़ता है।
ये एक परिवार से मिलने पर पता चला – उस घुमंतू परिवार मे 7 सदस्य है और सातो सदस्य मुह से बोल नहीं पाते, और ना उनके पास मुखवधिर होने के प्रमाण पत्र है, और होगा भी कहा से, घुमंतू समुदाय तो आज की विकास की धारा का हिस्सा ही नहीं है क्युकी वो खुद ये साबित नहीं कर सकता की वो किस समुदाय से है? कौन है? – क्युकी इसके लिए दस्तावेज लगते है जो उनके पास नहीं है? या सरकार की पोहच नहीं है बाकी समुदाय के मुकाबले ?
घूमंतू समुदाय को कई सो सालों से हमारे लोगों को यह बताया गया है कि वे कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से कमतर हैं। उन्होंने अपनी रोजाना की बातचीत में अपनी जाति का मज़ाक़ बनते देखा है। जो उन्हें अन्दर से कमजोर करता है। उन्हें महसूस हुआ है कि उनके समुदाय का कोई वजन नहीं है। हमारी सहज भाषा मे उनका अपमान शामिल होता है। इस बात का मे ठोस सबूत देता हु- हम जब एक घूमंतू परिवार से मिलने गये तो कुछ बच्चे खुले मैदान मे बकरिया चारा रहे थे,हमने उनसे उनके परिवार के बारे में पूछा एक बच्चे ने बताया खेत में काम कर रहे है। थोड़ी ही दूर पर खेत था। हम उस खेत में उनसे मिलने चले गये तो उस खेत मे खेत मालिक ने हमको देखा और हमारे पास आ कर हमसे कहा, कहा तुम इनके पीछे अपना समय बर्बाद कर रहे हो, “ये तो ऐसे थे और ऐसे ही रहेंगे” इतना सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए गुस्सा आ रहा था,अन्दर से लेकिन खेत मालिक से पूछा “मेने कैसे है और कैसे रहेंगे” जरा साफ़ शब्दों में बताओ, वो मेरी हिंदी भाषा को सुनकर बोला की क्या तुम बहार से हो मेरे साथी ने हां कहा, मेने अपने साथी को कहा इनसे मारवाड़ी भाषा मे पूछो- “आज़ादी के इतने साल बाद भी घुमंतू परिवार के सदस्य आपके खेतो में नार्मल मजदुर से कम मजदूरी मे काम करेंगे तो ऐसे ही रहेंगे” । तुम कितनी मजदूरी देते हो पहले ये बताओ, जर-जर सवाल-जबाब का मतलव ये है की इस तरह की भाषा वो अपनी रोजाना की जिंदगी मे रोज झेलते है। जो उनके व उनके बच्चे को अंदर ही अन्दर हमारे विकास के समुदाय और खुद को भारत के हिस्से से दूर करते आ रहा है। तभी आज सही अकड़ा भी हम नहीं निकालकर बात कर सकते है। न ही जन कल्याणकारी योजना मे उनका चित्र देख कर,उनके हिसाब से योजना बना सकते है । एक और सवाल कितने बावरिया परिवार के पास घर है ? और कितनो को मुख्यमंत्री आवास योजना का लाभ मिला है? कितने मजदुर नरेगा मे काम करते है? कितने बावरिया समुदाय के बच्चो का स्कूल में एड्मिसन है? कितने बच्चे कालेज मे है? ये बहुत से सवाल है जो रात भर सोने नहीं दे रहे?
डेजर्ट फेलो – राकेश यादव