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शिक्षकों को केवल विषय का शिक्षक नहीं विद्यार्थियों के जीवन का शिक्षक बनना चाहिए

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5 सितंबर शिक्षक दिवस पर विशेष-
शिक्षकों को केवल विषय का शिक्षक नहीं विद्यार्थियों के जीवन का शिक्षक बनना चाहिए

– रमेशचन्द्र चन्द्रे

              भारतीय जीवन प्रणाली में शिक्षक का स्थान ईश्वर के समकक्ष है, अनेक विचारकों   ने तो शिक्षक को ईश्वर से भी बड़ा माना है, क्योंकि ईश्वर प्राप्ति का मार्ग शिक्षक दिखता है।
“शिक्षक” एक विद्वत्ता पूर्ण एवं विभिन्न जानकारियां से भरा हुआ हाड मांस का पुतला नहीं है अपितु वह स्वयं अपनी आत्मा के प्रकाश से विद्यार्थी की आत्मा को आलोकित करता है तथा शिष्य के अंतरण में वह दीप जलाता है ताकि वह अन्य लोगों के हृदयो के दीप जला सके और इसलिए, शिक्षक वेतन भोगी होने के बाद भी समाज में श्रद्धा- प्रतिष्ठा एवं सम्मान की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है।
संसार में अन्य सेवाओं की तुलना में शिक्षा तथा शिक्षक में चरित्र की भरपूर अपेक्षा की जाती है, उसके डगमग होने मात्र से ही एक छोटा समाज डगमग होने लगता है इसलिए हमेशा यह प्रयास किया जाता है कि शिक्षक के चरित्र पर आंच नहीं आवे।
एक समय था जब शिक्षकों के सम्मान में बड़े-बड़े सम्राट और वर्तमान युग में मंत्री अधिकारी भी उनके सम्मान में खड़े हो जाया करते थे भले ही वह उनके मातहत कर्मचारी रहे हो किंतु आज सारे मूल्य बदल गए।
जो शिक्षक कभी पूजा के योग्य मान जाते थे वह नौकरशाही के शिकार हो गए तथा अधिकारी वर्ग भी  उनके साथ बदतमीजी का व्यवहार करते हैं। यहां तक की अभिभावक और विद्यार्थी भी उन्हें एक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में ही देखते हैं।
इसके लिए बहुत कुछ शिक्षक भी जिम्मेदार है क्योंकि भौतिकवादी सुखों को प्राप्त करने के चक्कर में वे स्वयं कभी ना कभी पतन के रास्ते पर चल पडते हैं इसलिए आसपास का परिवेश भी उन्हें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता।
मुगलों के और अंग्रेजों के जमाने में शिक्षक तथा पटवारी एक खतरनाक एलिमेंट माना जाता था क्योंकि सत्ता परिवर्तन में शिक्षक तथा पटवारी की भूमिका अहम होती थी वह इसलिए की शिक्षक और पटवारी जिस गांव में हुआ करते थे उनका पारिवारिक संबंध सभी परिवारों से रहता था तथा उनकी वाणी, उनके शब्दों में इतना प्रभाव था कि वह बड़ी-बड़ी सत्ता परिवर्तन का कारक बन जाया करते थे इसलिए प्रत्येक चुनाव के पूर्व अंग्रेजों से लेकर आज तक शिक्षक और पटवारी के तबादले पहले किए जाते हैं।
जो शिक्षक बड़े-बड़े सम्राटों और राजनेताओं के सिंहासनों को परिवर्तित करने की शक्ति रखता था आज वह स्वयं अपने तबादलो के लिए गिडगिडाते नजर आता है।
अतः इसकी आवश्यकता है कि शिक्षकों की पुनः प्रतिष्ठा, सम्मान समाज को लौटना चाहिए, तथा शिक्षक को भी चाहिए कि “वह केवल एक विषय का शिक्षक नहीं बनें ,बल्कि अपने विद्यार्थी के जीवन का शिक्षक बनें” इस बात का प्रयास करना चाहिए तभी शिक्षक दिवस मनाना सार्थक होगा अन्यथा 5 सितंबर के दिन पुष्पमाला पहनाकर या शाल श्रीफल देकर शिक्षकों के सम्मान की नौटंकी समाज में कोई परिवर्तन नहीं ला सकती। वर्तमान समय में फर्जी, नाकारा और अकुशल, कामचोर शिक्षक जब मंचों पर सम्मान प्राप्त करते हैं तथा ऐसे ऐसे लोग भी कभी-कभी राज्यपाल और राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त करते हैं जिनका जमीन पर कोई चरित्र नहीं होता इस कारण शिक्षकों की और अवमानना और अधिक बढ़ जाती है।
नवीन शिक्षा नीति में जब तक शिक्षकों के सम्मान के मूल्यांकन का कोई वास्तविक प्रावधान नहीं किया जाएगा तब तक भले ही उत्कृष्ट स्कूल हो या सी एम राइस स्कूल अथवा नवोदय विद्यालय, यह विद्यार्थियों का कल्याण नहीं कर सकता क्योंकि इसके संचालन की मुख्य धूरी जो  शिक्षक है, वह ठीक नहीं है तो गगनचुंबी स्कूल भवन की अट्टालिकाएं और बड़े-बड़े संसाधन शिक्षा का कल्याण नहीं कर सकते?

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