आलेख/ विचारइंदौरमध्यप्रदेश

झरोखे से झाँकती आँखें,दर्द अपने-अपने

झरोखे से झाँकती आँखें,दर्द अपने-अपने

-सतीश जोशी, वरिष्ठ पत्रकार, इन्दौर

हर किसी का अपना-अपना झरोखा होता है। कोई झरोखे से आते-जाते लोगों को देखता निहारता है। उनमें एक बूढ़ी आँखें हैं, जो विदेश गए या दूर शहर गए बच्चों के लौटने का इंतजार करती है। सुबह से शाम हो जाती है, रात वह फिर अपने झरोखे से घर में ठंडी आहें भर लौट आती है। वृद्ध आश्रम में भी एक झरोखा है, जहां से कई एक बूढ़ी आँखें, जिनका अब दुनिया में कोई नहीं है… और पता नहीं वे क्यों…? दिन भर जब भी समय मिलता है, झरोखे से ठहरी निष्ठुर सड़कों और उस पर भागते लोगों, वाहनों को देखती रहती है। ऐसे ही कितने ही लोग हैं… जो झरोखे से बिना किसी उद्देश्य के, बिना किसी चाह के, अपने सरकते समय को व्यतीत करते हैं। एक कमसिन भी है जो अपने झरोखे से नौजवानों को आते-जाते देखती है,पर वे न कुछ कह पाते हैं, ना यह कुछ कह पाती है।
आध्यात्मिक दुनिया में भी झरोखा है।भीतर से बाहर की ओर झाँकने का माध्यम और बाहर से भीतर देखने का रास्ता। हमारी आँखें भी तो झरोखा ही हैं-मन-मस्तिष्क को संसार से और संसार को मन-मस्तिष्क से जोड़ने का। मन रूपी झरोखे से किसी भक्त को संसार के कण-कण में बसने वाले ईश्वर के दर्शन होते हैं तो मन रूपी झरोखे से ही किसी डाकू-लुटेरे को किसी धन्ना-सेठ की धन-संपत्ति दिखाई देती है, जिसे लूटने के प्रयत्न में वह हत्या जैसा जघन्य कार्य करने में तनिक नहीं झिझकता।

झरोखा स्वयं कितना छोटा-सा होता है पर उसके पार बसने वाला संसार कितना व्यापक है। जिसे देख तन मन की भूख जाग जाती है और कभी-कभी शांत भी हो जाती है। किसी पर्वतीय स्थल पर किसी घर के झरोखे से गगन चुंबी पर्वत मालाएँ, ऊँचे-ऊँचे पेड़, गहरी-हरी घाटियां, डरावनी खाइयाँ यदि पर्यटकों को अपनी ओर खींचती हैं तो दूर-दूर तक घास चरती भेड़-बकरियां, बांसुरी बजाते चरवाहे, पीठ पर लंबे टोकरे बांध कर इधर-उधर जाते सुंदर पहाड़ी युवक-युवतियाँ मन को मोह लेते हैं।

राजस्थानी महलों के झरोखों से दूर-दूर फैले रेत के टीले कछ अलग ही रंग दिखाते हैं। गाँवों में झोंपड़ों के झरोखों के बाहर यदि हरे-भरे खेत लहलहाते दिखाई देते हैं तो कूडे के ऊँचे-ऊँचे ढेर भी नाक पर हाथ रखने को मजबूर कर देते हैं। झरोखे कमरों को हवा ही नहीं देते बल्कि भीतर से ही बाहर के दर्शन करा देते हैं। सजी-संवरी दुल्हन झरोखे के पीछे छिप कर यदि अपने होने वाले पति की एक झलक पाने को उतावली रहती है…. तो कोई विरहणी अपना नजर बिछाए झरोखे पर ही आठों पहर टिकी रहती है।

मां अपने बेटे के आगमन का इंतजार झरोखे पर टिक कर करती है। झरोखे तो तरह-तरह के होते हैं पर झरोखों के पीछे बैठ प्रतीक्षा रत आँखों में सदा एक ही भाव होता है-कुछ देखने का, कुछ पाने का। युद्ध भूमि में मोर्चे पर डटा जवान भी तो खाई के झरोखे से बाहर छिप-छिप कर झाँकता है-अपने शत्रु को गोली से उडा देने के लिए। झरोखे तो छोटे बड़े कई होते हैं पर उनके बाहर के दृश्य तो बहुत बड़े होते हैं जो कभी-कभी आत्मा तक को झकझोर देते हैं। बस आत्मा को झकझोर दे, वह झरोखा सबके जीवन का हिस्सा हो।

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