आलेख/ विचारमंदसौरमध्यप्रदेश
मंदसौर में ठंड से सिकुड़ते, सड़क पर खाते- सोते आदिवासी

आजादी के 78 साल बाद भी…..
मंदसौर में ठंड से सिकुड़ते, सड़क पर खाते- सोते आदिवासी
आजादी के बाद “भारत के संविधान के अनुच्छेद 45(4) अनुच्छेद 46 के अनुसार आदिवासियों की शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य इत्यादि पर विशेष योजनाएं लागू की जाएगी।” इस प्रकार का उल्लेख है। किंतु कांग्रेस के 63 साल और भाजपा के 15 साल के बाद भी आदिवासियों की स्थिति में कोई अधिक परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है ।
मध्य प्रदेश में आदिवासी धार, झाबुआ, बड़वानी, खरगोन, डिंडोरी, छिंदवाड़ा, मंडला, सिवनी, शहडोल, क्षेत्र में सर्वाधिक मात्रा में है। इन जिलों में भील, गौंड, कोरकू, बैगा, सहरिया, भरिया, खैरवार, धनवार, कोरवा, अगरिया, पनिका, बिंझवा,एवं बिरझरे, इत्यादि जातियां निवास करती है। वर्तमान में मध्य प्रदेश की जनसंख्या करीब 7 करोड़ है वहीं आदिवासियों की संख्या 1 करोड़ 50 लाख है जो मध्य प्रदेश की कुल आबादी का 21% है।
सरकार के द्वारा उन्हें आधुनिक खेती तथा उनकी उपज का उचित मूल्य दिलवाने के लिए बहुत प्रयास किए गए और केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक उनके कल्याण के लिए बहुत बड़ा फंड भी दिया जाता है किंतु बीच में दलाल, अधिकारियों के द्वारा उन तक यह खर्च पहुंचता नहीं है और उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता।
उक्त जिलों में आदिवासी बेल्ट का कानूनी लाभ लेकर बड़े-बड़े उद्योगपति लोग, उद्योग धंधे डाल लेते हैं जैसे पिथनपुर क्षेत्र में ऐसे अनेक शहरी क्षेत्र में उद्योग धंधे डालते हैं किंतु उन उद्योग और कारखानों में आदिवासी मजदूर को प्राथमिकता के साथ नहीं रखा जाता जिसके कारण उक्त जिलों के लगभग 75% आदिवासी मजदूरी करने के लिए अपना मूल निवास छोड़कर विभिन्न शहरों में पलायन करके आ जाते हैं।
अभी एक जानकारी के अनुसार मध्य प्रदेश के मंदसौर नगर में ही लगभग 85 परिवारों के 460 आदिवासी खुले हुए मे विनोद छत के सड़कों पर निवास करते हैं तथा एक अनुमानित जानकारी के अनुसार मंदसौर जिले में करीब 4000 आदिवासी विभिन्न क्षेत्रों में अस्थाई रूप से काम करते हैं और फिर, अपने मूल स्थान पर चले जाते हैं।
कड़कड़ाती ठंड में जब सामान्य गृहस्थ रजाइयों में दुबके रहते हैं उस समय यह आदिवासी रात्रि में अपने 5 6 महीने के बच्चों के साथ सड़कों पर खुली छत के नीचे अपनी रात बिताते हैं सुबह उठकर वहीं चूल्हा जलाते हैं, वहीं कहीं नहा लेते हैं और खाना खाकर साथ में बांधकर 8:00 बजे काम पर निकल जाते हैं।
दिनभर मजदूरी के बाद रात्रि को फिर वही स्थिति।
यदि सरकार के द्वारा उन्हीं के क्षेत्र में उद्योग और कारखानों की स्थापना का प्रयास किया जावे तो उन्हें रोजगार के लिए अपना गांव छोड़कर पलायन नहीं करना पड़ेगा क्योंकि गांव छोड़ते वक्त वह अपने चांदी एवं अन्य सामान किसी व्यापारी के यहां गिरवी रखकर आते हैं और उसका ब्याज अलग से देते हैं।
सांसदों को और विधायकों एवं को एवं प्रशासन अन्य जनप्रतिनिधियों को इस दिशा में गंभीरता से विचार करना चाहिए।
रमेशचन्द्र चन्द्रे
मध्य प्रदेश में आदिवासी धार, झाबुआ, बड़वानी, खरगोन, डिंडोरी, छिंदवाड़ा, मंडला, सिवनी, शहडोल, क्षेत्र में सर्वाधिक मात्रा में है। इन जिलों में भील, गौंड, कोरकू, बैगा, सहरिया, भरिया, खैरवार, धनवार, कोरवा, अगरिया, पनिका, बिंझवा,एवं बिरझरे, इत्यादि जातियां निवास करती है। वर्तमान में मध्य प्रदेश की जनसंख्या करीब 7 करोड़ है वहीं आदिवासियों की संख्या 1 करोड़ 50 लाख है जो मध्य प्रदेश की कुल आबादी का 21% है।
सरकार के द्वारा उन्हें आधुनिक खेती तथा उनकी उपज का उचित मूल्य दिलवाने के लिए बहुत प्रयास किए गए और केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक उनके कल्याण के लिए बहुत बड़ा फंड भी दिया जाता है किंतु बीच में दलाल, अधिकारियों के द्वारा उन तक यह खर्च पहुंचता नहीं है और उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता।
उक्त जिलों में आदिवासी बेल्ट का कानूनी लाभ लेकर बड़े-बड़े उद्योगपति लोग, उद्योग धंधे डाल लेते हैं जैसे पिथनपुर क्षेत्र में ऐसे अनेक शहरी क्षेत्र में उद्योग धंधे डालते हैं किंतु उन उद्योग और कारखानों में आदिवासी मजदूर को प्राथमिकता के साथ नहीं रखा जाता जिसके कारण उक्त जिलों के लगभग 75% आदिवासी मजदूरी करने के लिए अपना मूल निवास छोड़कर विभिन्न शहरों में पलायन करके आ जाते हैं।
अभी एक जानकारी के अनुसार मध्य प्रदेश के मंदसौर नगर में ही लगभग 85 परिवारों के 460 आदिवासी खुले हुए मे विनोद छत के सड़कों पर निवास करते हैं तथा एक अनुमानित जानकारी के अनुसार मंदसौर जिले में करीब 4000 आदिवासी विभिन्न क्षेत्रों में अस्थाई रूप से काम करते हैं और फिर, अपने मूल स्थान पर चले जाते हैं।
कड़कड़ाती ठंड में जब सामान्य गृहस्थ रजाइयों में दुबके रहते हैं उस समय यह आदिवासी रात्रि में अपने 5 6 महीने के बच्चों के साथ सड़कों पर खुली छत के नीचे अपनी रात बिताते हैं सुबह उठकर वहीं चूल्हा जलाते हैं, वहीं कहीं नहा लेते हैं और खाना खाकर साथ में बांधकर 8:00 बजे काम पर निकल जाते हैं।
दिनभर मजदूरी के बाद रात्रि को फिर वही स्थिति।
यदि सरकार के द्वारा उन्हीं के क्षेत्र में उद्योग और कारखानों की स्थापना का प्रयास किया जावे तो उन्हें रोजगार के लिए अपना गांव छोड़कर पलायन नहीं करना पड़ेगा क्योंकि गांव छोड़ते वक्त वह अपने चांदी एवं अन्य सामान किसी व्यापारी के यहां गिरवी रखकर आते हैं और उसका ब्याज अलग से देते हैं।
सांसदों को और विधायकों एवं को एवं प्रशासन अन्य जनप्रतिनिधियों को इस दिशा में गंभीरता से विचार करना चाहिए।
रमेशचन्द्र चन्द्रे



