उपराष्ट्रपति धनखड़ का इस्तीफा: राजनीतिक भूचाल की पटकथा या स्वास्थ्य की सच्चाई?

उपराष्ट्रपति धनखड़ का इस्तीफा: राजनीतिक भूचाल की पटकथा या स्वास्थ्य की सच्चाई?
-लेखक राजेश पाठक
अधिवक्ता एवं सद्भावना पथिक
भारत के संवैधानिक इतिहास में एक असामान्य मोड़ उस वक़्त आया, जब 14वें उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने मानसून सत्र की पहली शाम को ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया। जैसे ही यह खबर प्रसारित हुई, मीडिया की सुर्खियों ने देश की हर गली में हलचल पैदा कर दी। संसद सत्र की औपचारिक शुरुआत के चंद घंटों बाद आया यह त्यागपत्र न केवल चौंकाने वाला था, बल्कि गहरे सियासी रहस्यों की ओर भी संकेत करता है।
जहां एक ओर धनखड़ ने अपने इस्तीफे के पीछे “स्वास्थ्य कारणों” का हवाला दिया, वहीं दूसरी ओर विपक्ष और सियासी विश्लेषकों ने इसे सत्ता के गलियारों में चल रही एक गहन खींचतान की परिणति बताया। सवाल उठे—क्यों मार्च में एम्स में भर्ती होने के बावजूद जुलाई के अंत तक इस्तीफा नहीं दिया गया? क्या वाकई स्वास्थ्य ही वजह था, या कहानी कुछ और कहती है?
इस्तीफे के समय ने बढ़ाई शंकाएं
धनखड़ ने उस दिन भी विपक्ष के सांसदों से मिलकर कोई अस्वस्थता नहीं जताई थी। शाम छह बजे तक वह सक्रिय रहे, और ठीक तीन घंटे बाद पद त्याग दिया। यह संयोग नहीं, बल्कि रणनीतिक ‘टाइमिंग’ प्रतीत होती है। पहली बार नहीं है जब किसी उपराष्ट्रपति ने कार्यकाल पूरा होने से पहले पद छोड़ा हो— वी वी गिरि और वेंकट रमन भी ऐसे उदाहरण रहे हैं। लेकिन इस बार मुद्दा अलग था—राजनीति की तपती भट्टी में कुछ और पक रहा था।
जस्टिस वर्मा प्रकरण: टकराव की जड़
इस राजनीतिक नाटक का केंद्र एक जज—जस्टिस वर्मा—बनते हैं, जिनके घर से कथित रूप से ₹15 करोड़ जले हुए नोट मिलने की घटना को छुपाया गया। धनखड़, खुद एक वरिष्ठ वकील रहे हैं, इस मामले को लगातार संसद और मीडिया में उठाते रहे। सवाल पूछा: “ये रकम किसकी थी, और कौन था जो इसे मीडिया से छिपा पाया?”
धनखड़ इस पूरे घटनाक्रम पर विशेष ध्यान दे रहे थे, और शायद इसीलिए जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की पहल भी उन्होंने की। लेकिन सियासी परिस्थितियां उस ओर इशारा कर रही थीं कि इस लड़ाई में उन्हें अकेला छोड़ दिया गया। जब दोनों सदनों में प्रस्ताव तैयार हो रहे थे, तब उनके अधिकार क्षेत्र में टकराव खड़ा हो गया—लोकसभा के स्पीकर के पास पहले प्रस्ताव चला गया, और राज्यसभा चेयरमैन होते हुए भी धनखड़ इससे वंचित रह गए।
सत्ता के भीतर सत्ता की लड़ाई?
बताया जाता है कि धनखड़ इस बात से आहत थे कि बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की बैठक के दौरान नड्डा और रिजिजू जैसे वरिष्ठ नेता अनुपस्थित रहे। सत्ता पक्ष ने इस पूरे मामले से स्वयं को इस तरह अलग कर लिया मानो यह धनखड़ की व्यक्तिगत जिद हो। राजनाथ सिंह के आवास पर देर रात चली बैठकें और हड़बड़ी में किए गए दस्तखत इस बात की पुष्टि करते हैं कि कुछ बड़ा हो रहा था—और उस धनखड़ केंद्र में थे।
किसानों की आवाज़ बनना: दूसरा कारण?
धनखड़ ने हाल ही में किसानों के मुद्दे भी जोर-शोर से उठाए थे—केंद्र के कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने सार्वजनिक मंच से वादा खिलाफी पर सवाल खड़े करना इसका प्रमाण है। भारत में जीन-संशोधित बीजों और विदेशी डेयरी उत्पादों के खिलाफ वे मुखर थे। क्या यह असहजता सत्ता के लिए अस्वीकार्य थी?
एक संवैधानिक विदाई, मगर अनसुलझे सवाल
धनखड़ ने राष्ट्रपति को संबोधित करते हुए औपचारिक रूप से त्यागपत्र दिया और संविधान के अनुच्छेद 67 के अंतर्गत अपने दायित्व से मुक्त हो गए। अब वे ‘पूर्व उपराष्ट्रपति’ की उपाधि के साथ इतिहास में दर्ज हो गए हैं, लेकिन उनके पदत्याग की गूंज अभी शांत नहीं हुई है।
क्या यह केवल एक ‘स्वास्थ्य कारणों’ की औपचारिकता थी या एक बड़ी राजनीतिक पटकथा का मध्यांतर? क्या उपराष्ट्रपति जैसे गरिमामयी पद पर बैठे व्यक्ति को भी अंदरूनी सियासी समीकरणों के आगे झुकना पड़ा? और क्या जस्टिस वर्मा का मामला भारतीय न्याय प्रणाली पर गहरे सवाल नहीं खड़े करता?
धनखड़ का जाना केवल एक पद से विदाई नहीं, बल्कि उस नैतिकता और पारदर्शिता के संघर्ष की याद दिलाता है, जिसकी अपेक्षा जनता अपने संवैधानिक पदाधिकारियों से करती है। उनकी अंतिम पंक्ति—”भारत की वैश्विक प्रगति का साक्षी बनना मेरे लिए गौरव की बात रही”—शायद उनके मन की गहराइयों से निकली एक पीड़ा का इशारा भी है।
अब देखना यह है कि आगे कौन उपराष्ट्रपति बनता है और क्या वह उस कुर्सी पर बैठकर इन अधूरे सवालों का उत्तर दे पाएगा