भारतीय परम्पराओं को समृद्ध करता पर्व: गुरु पूर्णिमा

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भारतीय परम्पराओं को समृद्ध करता पर्व: गुरु पूर्णिमा
-डॉ. गुणमाला खिमेसरा
सदस्य – राजभाषा सलाहकार समिति,
भारत सरकार, नई दिल्ली
युगों पूर्व आश्रमों में पनपी गुरु-शिष्य परम्परा ने ज्ञान विज्ञान और अध्यात्म का कभी खत्म न होने वाला खजाना हमारे लिये छोड़ा है। हमने अपनी लोक, धार्मिक और पौराणिक कथाओं में गुरुओं के आशीर्वाद के अनगिनत प्रसंग सुने हैं। सभी में गुरु को ब्रहमा, विष्णु, महेश के बराबर स्थान दिया है। गुरु शब्द की व्याख्या इस प्रकार है- ‘गरति सिचयति कर्णयोर्ज्ञानामृतय इति गुरु‘ अर्थात जो शिष्य के कानों में ज्ञान रूपी अमृत का सिंचन करता है वह गुरु है। ’तीन लोक नवखंड में गुरु से बड़ा न कोई, कर्ता करे न कर सके गुरु करे जो होय‘ अर्थात आकाश पाताल पृथ्वी और नौ ग्रहों में गुरु से बड़ा कोई नहीं गुरु सर्वोपरि है। कबीर दासजी ने तो स्पष्ट संकेत दिया है कि स्वयं भगवान भी गुरू के साथ आपके सामने उपस्थित हो जाए तो आप पहले अपने गुरू को प्रणाम करे। (गुरू गोविन्द दोनों खड़े काके लागू पाय……….)। गुरु का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष से नहीं है बल्कि कुटुम्ब में अपनों से जो भी बड़ा ज्ञानी, संतोषी और हितेषी है उसे गुरु तुल्य समझना चाहिए। सभी बुजुर्ग अपने जीवन रूपी अनुभवों के आधार पर मार्गदर्शन देने में सक्षम होते है। शास्त्रों में तीन प्रत्यक्ष देवो की चर्चा की गई है। 1 माता 2 पिता 3 गुरु इन्हें ब्रह्मा विष्णु महेश की उपाधि दी गई है। माँ जन्म देती है जीवन की रचयिता है इसलिये ब्रह्मा है, पिता जीवन के पालनहार है अतः विष्णु का रूप माने जाते हैं गुरु जीवन के कुसंस्कारों को समाप्त करते हैं इसलिए वह महेश है। जीवन के हर कार्य को सिखाने वाले मार्गदर्शक गुरु ही है।जब हमारा जीवन विपरीत मूल्यों से भरा होता है तो मन ऐसी विषमताओं को संभालने में असमर्थ हो जाता है। ऐसे विकट समय में ही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है गुरु वही ज्ञान है गुरु एक सर्किट ब्रेकर की तरह है जब आप जीवन को संभाल नही पाते तब आपका गुरू आता है और आपको उलझनों से बाहर करता है।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा गुरु पूजन का पर्व है। जिसे हम गुरूपूर्णिमा के नाम से जानते है। यह कृतज्ञता ज्ञापित करने का पर्व है। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। महर्षि व्यास ने चार वेदों की प्रतिष्ठा की, महाभारत एवं श्रीमद्भागवत का प्रणयन किया, अठारह पुराणों की रचना की। उनकी महान रचनाओं के कारण ही उन्हीं के नाम पर यह पावन पर्व बड़ी आस्था से मनाया जाता है। जीवन को वामन से विराट रूप देने वाले गुरू ही है। यह दिवस प्रत्येक शिष्य के अपने अपने गुरुजनों के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति का दिवस है। हमारी परम्पराओं को गतिमान करता हमारी संस्कृति का पावन पर्व है। हमारे ऋषि मुनियों गुरुओं ने ज्ञान के सम्पूर्ण स्वरूप की 14 विद्या और 64 कलाओं की अवधारणा प्रस्तुत की हैं। उन्होंने ज्ञान के मूल उद्देश्यों को प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। हमारी परम्पराओं में जनकल्याण का भाव निहित है। इसमें ‘पेटेंट‘ का कोई स्थान नहीं। हमारे यहाँ प्राचीन काल से ही गुरूकुल की व्यवस्था रही है जीवन को सुखमय और सफल बनाने के लिये गुरु द्वारा प्रशिक्षण एवं परीक्षाएं ली जाती थी। ‘अर्जुन की परीक्षा‘ बच्चों के पाठ्यक्रम में आज भी पढ़ाई जाती है। गुरु के सिद्धान्तों को आगे बढ़ाना ही उनकी सच्ची सेवा हैं। गुरू की पूजा ही ज्ञान की पूजा है, अनुभव की पूजा है, विचारों की पूजा है। जो समाज गुरु द्वारा प्रेरित है वह अधिक वेग और प्रबलता से विकास के पथ पर अग्रसर होता है। भारत में अनेकों गुरुओं की अनेकों सीख है जो ‘गागर में सागर‘ के समान है। उनके संदेश, उनकी देशना आज भी शाश्वत है, चिरन्तन है, प्रासंगिक है। जगद्गुरू, श्रीकृष्ण ने निष्काम भाव से कर्म करने का संदेश दिया। कर्मफल ही सुख दुख का आधार है ‘गीता‘ में कृष्ण का प्रमुख उद्देश्य अर्जुन का संदेह दूर करना था उसे यह बताना था कि प्रत्येक स्थिति में कर्तव्य पालन ही प्रथम होता है। संत कबीर का ज्ञान तो एक प्रकार का शस्त्र था जिससे उन्होंने सामाजिक कुरीतियों को बिंध डाला। तुलसी ने आदर्श समाज की विवेचना की। रहीम के दोहे जीवन के यथार्थ को बताते हैं। निस्वार्थ गुरुओं ने जनहित के लिये संघर्ष किये बलिदान भी दिये। गुरु वशिष्ठ का त्याग भी सर्वविदित है। भारतीय संस्कृति में ऐसे ऐसे शिष्य भी हुए जिन्होने अपने त्याग, और परिश्रम से गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा प्रदान की है। एकलव्य जैसे गुरु भक्तों को हम आज भी याद करते है।
‘अर्थप्रेम‘ की शिक्षा देने वाले अपूर्ण मनुष्यों को गुरु बनाना सबसे बड़ी भूल होगी। क्योंकि गुरू में हम पूर्णता की कल्पना करते है। गुरू का न आदि है न अंत। हमारे यहाँ गुरू की महिमा के कारण ही भारत को विश्वगुरू का दर्जा मिला है। लेकिन द्रोणाचार्य जैसे स्वार्थी और अन्यायी गुरू ने गुरू महिमा को कलंकित किया है, उनकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचायी है। लेकिन हम गुरु ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते। गुरु प्रकाश पुंज है वह राजपथ भी दिखाता है आत्म कल्याण भी दिखाता है और जनकल्याण भी। गुरु समस्त सफलताओं का आशीर्वाद है। इस पावन पर्व पर हम हर उस व्यक्ति को याद करें उसका सम्मान करें उससे आशीर्वाद ले जिससे हमने कुछ भी सीखा हो
अंततः – यह तन विष की बेलड़ी, गुर, अमृत की खान शीश कटे भी गुरु मिले, तो भी सस्ता जान। अस्तु।
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