आलेख/ विचारमंदसौरमध्यप्रदेश

बढ़ते ठेके, बर्बाद परिवार, अर्थ बटोर जश्न मनाती सरकार ?

बढ़ते ठेके, बर्बाद परिवार, अर्थ बटोर जश्न मनाती सरकार ?

आलेख -विमल चंद्र जैन “मच्छी रक्षक
कहने को तो हम “विश्व गुरु भारत” बनने की बात करते है क्योंकि भारत देश अनेक संस्कृतियों, सभ्यता, परंपराओं एवं अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं का देश है यही भारत देश की विशेषता हैं। इस आधार पर आध्यात्मिक गुरु की पहचान के रूप में भारत की पहचान है पर आज यह नशे की लत से धुंधला रही है और सच्चाई यह भी है कि हाल के दिनों मे भारत विभिन्न सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है। उनमें से एक गंभीर चुनौती “नशाखोरी” जो आज गांव से लेकर शहर तक– शराब, तंबाकू, गांजा, भांग, गुटखा व धूम्रपान – चरस, स्मैक, कोकिन, ब्राउन शुगर जैसे घातक मादक पदार्थों की और बढ़ता युवा पीढ़ी का ध्यान समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है। इसका दुष्प्रभाव शारीरिक मानसिक और आर्थिक हानि पहुंचाने के साथ ही सामाजिक वातावरण भी दूषित हो रहा है। नशा एक सामाजिक बुराई है जिससे इंसान का अनमोल जीवन समय से पहले ही मौत का शिकार हो जाता है। नशा इंसान को व परिवार को तो बर्बाद करता ही है पर आज भारत में यह इंसानियत को बर्बाद कर रहा है। इस बर्बादी में सरकार की भूमिका बनी हुई है ? हर नया ठेका एक नया सामाजिक दर्द बनता जा रहा है। हर गली मोहल्ले में शराब की दुकान खोली जा रही क्या यही सामाजिक सुधार है ? यही सुशासन है ? हमारी संस्कृति है ? विकास के नाम पर अब व्यसन का व्यापार फल फूल रहा है। जैसे विकास का नया “प्रतीक ठेके हो” ? इन ठेकों से सरकार खुश — क्योंकि खजाना भर रहा है। आर्थिक स्वार्थ के नशे में डूबी सरकार, शासन की आंखें शायद मुनाफे की चमक से सामाजिक बर्बादी दिखाई नहीं देती या देखना ही नहीं चाहतीं कि– समाज रो रहा है घर बिखर रहे हैं, परिवार बिलख रहे हैं, प्रताड़ित हो रहे हैं हर बोतल के पीछे एक विधवा मां, भूखा बच्चा एक उजड़ा भविष्य रो रहा है। सरकार को परिवार की बर्बादी की चीख-पुकार सुनाई नहीं देती क्या यही “अमृत काल” है ? मुझे लगता है यह अमृत काल नहीं, विकास नहीं, विनाश का उत्सव, दानव संस्कृति है ? यह विष का कारोबार जो सरकारी संरक्षण से विकास के नाम पर चल रहा है। सरकारें नशा मुक्त भारत के नारे तो खूब देती है पर विडंबना यह की उसी सरकार के राजस्व का बड़ा हिस्सा शराब और तंबाकू से आने वाले टैक्स पर टिका है। यह कैसी नीति है ? कैसी नैतिकता ? यही विडंबना है उस लोकतंत्र की जो अपने नागरिकों के पतन से लाभ उठाता है। जब राजनीति मद के नशे में चूर हो और जनता मौन हो तो सभ्यता धीरे-धीरे अपने ही कर्मों से खुद को जला देती है। क्या व्यसन मुक्त भारत केवल भाषणों का सपना ही रहेगा। अब सवाल है – क्या हम शराब की बोतलों व अन्य मादक पदार्थ के नशे में डूबा भारत देखते रहेंगे ? समय है कि सरकारें नशे के इस व्यवसाय को राजस्व नहीं “राष्ट्रीय अपराध” माने और समाज भी यह संकल्प लें जन चेतना जागृत करें की युवा नशा छोड़े और उन्हें संस्कार से जोड़ो वरना आनेवाली पीडिया पूछेगी भारत का समाज व सरकारें क्या सोई थी ? अब वक्त है नशे के विरुद्ध जन जागृति का। उठो भारत बोतले तोड़ो , सोच बदलो , वक्त जनता को जगाने का। जब सत्ता बहरी, अंधी हो जाती है तो जनता की चेतना ही क्रांति बनती है। जरूरत है नशे के खिलाफ सामाजिक निर्णय की, सामाजिक संकल्प की — नारों की नहीं।

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