शब्दों का युद्ध का संग्राम- एक शांत हथियार

शब्दों का युद्ध का संग्राम- एक शांत हथियार
लेखन हमेशा से एक साधन रहा है, पर यह सिर्फ़ भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं है यह एक युद्ध है।हाँ, युद्ध! पर यह तलवार और बंदूक वाला युद्ध नहीं।यह है विचारों का युद्ध, मूल्यों का युद्ध, सत्य और असत्य का युद्ध,जो लेखक अपने भीतर और समाज के बाहर, दोनों जगह एक साथ लड़ता है।लेखक जब कलम उठाता है तो वह किसी सत्ता के विरुद्ध नहीं, बल्कि अन्याय, समानता, और झूठ के विरुद्ध उठाता है।उसकी लेखनी का हर शब्द एक सिपाही है।वह सिपाही लेखक के मन से निकलता है, और जब समाज तक पहुँचता है तो या तो मरहम बनता है या फिर चोट करने वाला बाण।लेखन का यह युद्ध हमेशा मौन होता है, पर इसकी गूंज सदियों तक सुनाई देती है।कबीर ने जब लिखा, तुलसी ने जब लिखा, प्रेमचंद ने जब लिखा वे सब इसी युद्ध के सैनिक थे।उन्होंने तलवार नहीं चलाई, पर उनकी लेखनी ने असंख्य तलवारों को झुका दिया।
भीतर का युद्ध
जब कोई साहित्यकार लिखने बैठता है तो वह सबसे पहले अपने भीतर उतरता है।वहाँ विचारों का तूफ़ान है।भावनाओं की नदी है।अनुभवों का पहाड़ है।और इन सबके बीच खड़ा है लेखक अपने मन के रणक्षेत्र में।वह सोचता है कौन-से शब्द चुने जाएँ?कौन-सी बात कही जाए, और कौन-सी अभी भीतर रहे?किसी के पक्ष में लिखने का अर्थ है किसी के विरुद्ध खड़ा होना तो क्या वह उस युद्ध के लिए तैयार है?यही से शुरू होता है “लेखनी का युद्ध”।एक लेखक का सबसे बड़ा युद्ध अपने ही भीतर होता है।वह अपने डर से, अपनी असुरक्षा से, अपने आलस्य और अपने भ्रम से लड़ता है।कई बार वह यह सोचकर कलम रख देता है कि “किसे फर्क पड़ेगा?”,पर अगले ही दिन वह लौट आता है, क्योंकि उसके भीतर का सिपाही अब भी जाग रहा होता है।
शब्दों की सेना
हर लेखक के पास शब्दों की असंख्य जनसंख्या होती है।हजारों शब्द उसके भीतर रहते हैं जैसे नागरिक, जैसे सैनिक।पर युद्ध के लिए वह सबको नहीं बुला सकता।उसे चुनने होते हैं सटीक सिपाही जो उसके विचारों को ईमानदारी से प्रस्तुत करें।यह चयन बहुत कठिन है। क्योंकि कुछ शब्द बहुत सुंदर होते हैं पर खोखले,कुछ शब्द सच्चे होते हैं पर कठोर,कुछ शब्द भावनात्मक होते हैं पर सीमित,और कुछ शब्द साधारण होते हैं पर उनमें आग होती है।लेखक को इन्हीं में से अपने “सिपाही शब्द” चुनने होते हैं।अगर उसने सही शब्द चुने, तो वे उसके मूल्यों की रक्षा करेंगे।वे सत्य, करुणा, समानता, और स्वतंत्रता के पक्ष में लड़ेंगे।पर अगर गलत शब्द चुन लिए तो वही शब्द मूल्यों को दबा देंगे,किसी की गरिमा को ठेस पहुँचाएँगे,और लेखनी की विश्वसनीयता छन्नी-छन्नी हो जाएगी।लेखक का सबसे बड़ा हथियार उसकी सावधानी है। एक गलत शब्द पूरे विचार को गिराता है,जैसे एक गलत सिपाही पूरी सेना को कमजोर कर देता है।
शब्दों की ज़िम्मेदारी
शब्द हल्के नहीं होते।वे भार रखते हैं अर्थ का, भाव का, इतिहास का।जब कोई लेखक किसी जाति, धर्म, स्त्री, दलित, या किसी हाशिये पर खड़े समुदाय के बारे में लिखता है,तो हर शब्द उसकी संवेदना की परीक्षा लेता है।लेखन में स्वतंत्रता जरूरी है, पर उससे भी जरूरी है ज़िम्मेदारी।क्योंकि शब्दों की एक पंक्ति किसी के जीवन को बदलती है,या किसी की पीड़ा को और गहरा करती है।शब्द सिर्फ़ बोले या लिखे नहीं जाते वे समाज की स्मृति में उतरते हैं और फिर आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें सत्य या झूठ के रूप में पढ़ती हैं।इसलिए लेखक का हर शब्द एक नैतिक निर्णय है।वह तय करता है कि उसका लेख समाज को मुक्त करेगा या बाँधेगा।
हर युग में कुछ मूल्य केंद्रीय रहे हैं सत्य, करुणा, न्याय, समानता, स्वतंत्रता, प्रेम।ये ही लेखनी के असली लक्ष्य हैं।जब कोई लेखक इन मूल्यों के पक्ष में लिखता है,तो उसके शब्द सिपाही बनकर प्रकाश फैलाते हैं।वे सवाल उठाते हैं, सोच बदलते हैं, और लोगों को अपने भीतर झाँकने को मजबूर करते हैं।पर जब लेखन सिर्फ़ प्रशंसा, प्रचार या पक्षपात में बदल जाता है,तो वही शब्द अंधकार फैला देते हैं।वे झूठ को सुंदर बनाकर बेचने लगते हैं,और धीरे-धीरे लेखनी की गरिमा खो जाती है।अच्छी लेखनी वह है जो किसी पक्ष में नहीं,बल्कि मनुष्य के पक्ष में खड़ी होती है।
लेखन सिर्फ़ आत्मा का नहीं, समाज का भी युद्ध है।हर युग में साहित्य ने समाज की दिशा तय की है।कबीर ने समाज से कहा “माया मरी न मन मरा, मर मर गए शरीर।”प्रेमचंद ने लिखा “गोदान” जैसे उपन्यासों में किसान के दर्द को आवाज दी।मुक्तिबोध ने कहा “ओ मेरे दर्शवादी मन!”ये सब लेखन के योद्धा थे।उन्होंने शब्दों से ही समाज की नींव हिलाई और नई नींव ली।आज भी जब हम किसी अन्याय, भेदभाव या हिंसा के खिलाफ़ लिखते हैं,तो हम उसी परंपरा के सैनिक होते हैं।हमारा हर शब्द एक तीर की तरह होता है जो अंधेरे को चीरकर प्रकाश की तरफ़ बढ़ता है।
कई बार लेखनी का सबसे बड़ा हथियार उसका मौन होता है।लेखक सब कुछ नहीं लिखता।वह जानता है कि कुछ बातों को बिना कहे भी कहा जाता है।उसका मौन भी एक बयान होता है
क्योंकि जो नहीं लिखा गया, वही कई बार सबसे ज्यादा बोलता है।मौन का यह उपयोग भी युद्ध का एक हिस्सा है।यह वह क्षण है जब लेखक सांस लेता है, सोचता है, और फिर से अपने शब्द सिपाहियों को तैयार करता है।
लेखनी की हार और विजय
हर लेखक कभी न कभी हारता है।
वह लिखता है, मिटा देता है, फिर लिखता है।
कभी उसे लगता है कि उसके शब्द व्यर्थ हैं,
कोई सुन नहीं रहा।
पर असली विजय वहीं होती है जब लेखक लिखता रहता है।
क्योंकि यह युद्ध जीतने के लिए नहीं,
सिर्फ़ लड़ने के लिए होता है।
लेखक लड़ता है ताकि समाज सोच सके।
लेखक लिखता है ताकि मौन टूटे।
लेखन का उद्देश्य किसी विचार को थोपना नहीं है,बल्कि मनुष्य को सोचने की आज़ादी देना है।लेखनी का सच्चा काम है सवाल पैदा करना।सवाल जो भीतर झकझोर दें,जो आत्मा को नंगा कर दें,जो हमें हमारे ही भीतर ले जाएँ।जब तक लेखन यह काम करता रहेगा,तब तक वह युद्ध जीतता रहेगा। अंत में, लेखनी का धर्म है मानवता।लेखक चाहे कवि हो, कथाकार, निबंधकार या पत्रकार उसकी कलम से निकला हर शब्द मनुष्य की गरिमा की रक्षा करे,उसकी चेतना को जगाए,
और उसके भीतर के भय को तोड़े।लेखन का यह युद्ध बाहरी नहीं यह आत्मा का युद्ध है।
यह वह युद्ध है जो तब तक चलता रहेगा,जब तक मनुष्य के भीतर अन्याय, असमानता और अंधकार रहेगा।इसलिए हर लेखक को याद रखना चाहिए उसके शब्द सिर्फ़ शब्द नहीं, सिपाही हैं।
वे या तो समाज की रक्षा करेंगे, या उसे घायल करेंगे।अगर शब्दों का चयन सही हुआ,तो लेखनी स्वतंत्रता का गीत बनेगी।अगर गलत हुआ,तो वही लेखनी बेड़ियाँ बन जाएगी।
राकेश यादव मध्यप्रदेश के नर्मदापुरम ज़िले सिवनी मालवा से हैं। वे एक घुमंतू राहगीर कहानीकार, कवि और शोधकर्ता हैं, जो लोककला, संतवाणी और मानवीय मूल्यों के बीच संवाद रचते हैं। पिछले चौदह वर्षों से सामाजिक संस्थाओं के साथ युवाओं, कलाकारों और समुदायों के बीच सक्रिय रहकर उन्होंने समाज की अनकही आवाज़ों को लेखनी के ज़रिए सामने लाया है। वे सेकड़ो लेख,कविताएँ युवा कहानियाँ लिख चुके हैं। वर्तमान में वे मालवा क्षेत्र में लोक और कबीर परंपरा की यात्रा को दस्तावेज़बद्ध कर रहे हैं तथा निर्गुण गायकी और संवैधानिक मूल्यों पर संवाद की नई धारा बना रहे हैं।


