कांग्रेसी ने रखी नींव और पांच लोगों ने मिलकर बनाया था संगठन 1948 और1975 में लगा बैन

पांच लोगों से शुरू होकर 40 देशों तक पहुंचा संघ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 100 साल की यात्रा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक विशेष डाक टिकट और 100 का स्मारक सिक्का जारी किया है. स्मारक सिक्का शुद्ध चांदी से बना हुआ है.

सौ रुपये के इस सिक्के के एक ओर राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न अंकित है, जबकि दूसरी तरफ वरद मुद्रा में भारत माता की एक भव्य छवि अंकित है, जो हथेली को बाहर की ओर करके अर्पण करने का एक भाव है, जिसके साथ एक सिंह बना हुआ है. इसमें स्वयं सेवकों को भक्ति और समर्पण भाव से उनके समक्ष नतमस्तक दिखाया गया है.
सिक्के पर आरएसएस का आदर्श वाक्य ‘राष्ट्रीय स्वाहा, इदं राष्ट्राय, इदं न मम्’ भी अंकित है, जिसका अर्थ है ‘सब कुछ राष्ट्र को समर्पित, सब कुछ राष्ट्र का है, कुछ भी मेरा नहीं है.’

1925 में हिंदुओं के अधिकार की लड़ाई के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीव रखी गई झांकी निकालने के विवाद बाद दंगे भड़क गए। आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार जो उस समय कांग्रेस से जुड़े थे, उन्हें उम्मीद थी कि उनकी पार्टी हिंदुओं के लिए आवाज उठाएगी, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया। यहीं से 34 साल हेडगेवार के मन में हिंदुओं के लिए एक मजबूत संगठन शुरु करने के विचार ने जन्म लिया
पहले हिंदू महासभा से जुड़े फिर बनाया संघ हालांकि इस समय तक देश में हिंदू महासभा की शुरुआत हो चुकी थी और हेडगेवार कुछ समय के लिए इससे जुड़े भी लेकिन बाद में हिंदू महासभा से उन्होंने अपने रास्ते अलग कर लिए। हेडगेवार का मानना था कि यह संगठन अपने राजनीतिक लाभ के लिए हिंदूओं के अधिकार से समझौता कर सकता है। ऐसे में हेडगेवार ने एक नए संगठन की शुरुआत करने की सोची जो बिना राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के सिर्फ हिंदूओं के हितों के लिए लड़ सके इसी को लेकर 27 सितंबर 1925 विजयादशमी के दिन इसी विचार के साथ हेडगेवार ने अपने घर में पांच लोगों की बैठक बुलाई। इस बैठक में वीर सावरकर के भाई गणेश सावरकर, डॉ. बीएस मुंजे, एलवी परांजपे और बीबी थोलकर शामिल हुए थे। यहीं हेडगेवार ने संघ बनाने के विचार को इन पांच लोगों के सामने रखा और फिर 17 अप्रैल 1926 को इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम दिया गया। यह पांचों साथी शहर में शाखा लगाने लगे, जो कि हफ्ते दो दिन आयोजित होती थी। इसमें एक दिन कसरत की जाती थी और दूसरे दिन देश के मुद्दों पर चर्चा होती थी।
सविनय अवज्ञा आंदोलन में दिया गांधी का साथ
1926 में रामनवमी के दिन संघ ने एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया और स्वयंसेवक कहे जाने वाले इसके सदस्य खाकी शर्ट, खाकी पैंट, खाकी कैप और बूट पहन कर इसमें हिस्सा लेने पहुंचे, जो कि संघ की यूनिफॉर्म थी। महात्मा गांधी से नाराजगी के बावजूद हेडगेवार 1930 में उनके साथ नमक कानून के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन का हिस्सा बने। हालांकि अग्रेजों द्वारा संघ पर प्रतिबंध लगाने के डर से उन्होंने आरएसएस के बैनर तले इस आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया लेकिन वह व्यक्तिगत रूप से इस आंदोलन से जुड़े और जेल भी गए इस दौरान युवाओं को संघ से जोड़ा
इस दौरान हेडगेवार 9 महीने तक जेल में रहे और एलवी परांजपे ने संघ की जिम्मेदारी संभाली। जेल से बाहर आने के बाद हेडगेवार ने युवाओं को संघ से जोड़ना शुरु किया। उन्होंने उनसे अपने कॉलेज में शाखा लगाने को कहा और देखते ही देखते संघ महाराष्ट्र से बाहर भी अपनी पकड़ बनाने लगा। सबसे पहले 1930 में वाराणसी में राज्य के बाहर शाखा लगी थी। गोलवलकर वाराणसी यही से शाखा से जुड़े जो कि दूसरे संघप्रमुख रहे थे। इसके बाद देखते ही देखते संघ पूरे देश में अपनी जड़े मजबूत करने लगा।
1948 में तत्कालीन सरकार ने लगाया बैन
1947 में देश को आजादी मिली और संघ ने भी आजादी के आंदोलन का हिस्सा रहा। लेकिन 1948 में महात्मा गांधी को गोली लगने पर तत्कालीन सरकार ने संघ पर बैन लगा दिया। 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी थी और वह संघ का सदस्य था। उस दौरान संघ के प्रमुख गोलवलकर थे और इस खबर के सामने आते ही वह जान चुके थे कि संघ का मुश्किल दौर शुरु हो चुका है। गांधी की मृत्यु की खबर मिलने पर गोलवलकर ने देशभर में शाखाओं को 13 दिन का शोक रखने और इस दौरान शाखा का संचालन न करने का निर्देश दिया
6 महीने जेल में रहे गोलवलकर
30 जनवरी को गांधी को गोली मारी गई और 2 फरवरी को गोलवलकर को गिरफ्तार कर आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन गोलवलकर ने हार नहीं मानी और अपने स्वयंसेवकों को संदेश देकर कहा कि, संदेह के बादल छंट जाएंगे और हम बिल्कुल बेदाग बाहर निकलेंगे। 6 महीने बाद गोलवलकर रिहा हो गए और 11 जुलाई 1949 को संघ पर से भी बैन हटा दिया गया। प्रतिबंध हटने के बाद गोलवलकर ने संघ का प्रसार करने का फैसला लिया और इसके अलग अलग सहयोगी संगठन बनाए।
कई सहयोगी संगठनों की स्थापनी की
इसी के तहत जुलाई 1948 में आरएसएस की स्टूडेंट विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की शुरुआत हुई। इसके बाद 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की गई। इसी साल गोरखपुर में पहला सरस्वती शिशुमंदिर बना। 1966 में विश्व हिंदू परिषद की नींव रखी गई। संघ ने 1951 में बने भारतीय जन संघ को भी समर्थन दिया। 1980 में संघ की विचारधार के साथ देश की सत्ताधारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की शुरुआत की गई। 1973 में गोलवलकर का निधन हुआ लेकिन उससे पहले उन्होंने आरएसएस को एक मजबूत संगठन के तौर पर पूरी तरह से तैयार कर दिया था। गोलवलकर के बाद मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बालासाहब देवरस को संघप्रमुख की जिम्मेदारी दी गई। इसके बाद 1994 में राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया और 2000 में केसी सुदर्शन संघ प्रमुख बने। इनके बाद 2009 ने अब तक डॉ. मोहन भागवत ने संघ प्रमुख की जिम्मेदारी संभाल रहे है।
आज पूरे विश्व में 1 करोड़ से भी ज्यादा स्वयंसेवक
इन 100 सालों के सफर में संघ ने कई उतार चढ़ाव देखे और उसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। संघ पर प्रतिबंध लगा और कांग्रेस की सरकार के दौर में आरएसएस को कड़ी आलोचनाएं झेलनी पड़ी। लेकिन हर मुश्किल और रुकावट को हरा कर संघ इन 100 सालों तक मजबूती से टिका रहा और 5 लोगों की बैठक से शुरु होने वाले इस संगठन से आज करोड़ो की संख्या में लोग जुड़ गए है। संघ वर्तमान में सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के 40 से ज्यादा देशों में फैला हुआ है। पूरे विश्व में इसके 1 करोड़ से भी ज्यादा स्वयंसेवक है। संघ का दावा है कि वह दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। सिर्फ भारत मे ही हर दिन 83 हजार से अधिक शाखाएं लगाई जाती है।
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