इतिहास दर्शनमध्यप्रदेश

हिंगलाजगढ़ किला भानपुरा ग्यारहवी शताब्दी में मालवा पर शासन करने वाले परमार राजाओं ने एक अद्भुत किले का निर्माण कराया था

हिंगलाजगढ़ किला भानपुरा ग्यारहवी शताब्दी में मालवा पर शासन करने वाले परमार राजाओं ने एक अद्भुत किले का निर्माण कराया था

{ हिंगलाजगढ़ किले का इतिहास }

हिंगलाजगढ़ किला भानपुरा( मध्य प्रदेश) जिला मन्द्सोर ग्यारहवी शताब्दी में मालवा पर शासन करने वाले परमार राजाओं ने मंदसौर से 165 और भानपुरा से 26 किमी दूर एक अद्भुत किले का निर्माण कराया था। आज यह किला खंडहर में तब्दील हो चुका है, लेकिन इसकी बनावट और शिल्पकारी को देख वैभव के चरमकाल में इसकी बुलंदियों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। किले में गुप्त और परमार काल की चौथी और पांचवीं शताब्दी की मूर्तियां जहां इसके अद्वितीय मूर्तिशिल्प को दर्शाती हैं, वहीं किले में बने विभिन्न भवन इसके सामरिक महत्व को भी प्रदर्शित करते हैं।

इस सबसे बढ़कर किले से रहस्य और रोमांच की एक अलहदा कहानी भी जुड़ी है।मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले की भानपुरा तहसील के नावली गांव में पहाड़ी पर बना हुआ है प्राचीन हिंगलाजगढ़ किला। परमार काल में यह किला अपने वैभव के चरम पर था। किले में विभिन्न कालखंडों की प्रस्तर मूर्तिशिल्प कलाकृतियां आज भी मौजूद हैं। हिंगलाजगढ़ किला लगभग 800 वर्षों तक मूर्तिशिल्प कला का केंद्र रहा है। इस किले में मिली मूर्तियां गुप्त और परमार काल की हैं।किले में मिली सबसे पुरानी मूर्तियां तो लगभग 1600 साल पुरानी हैं और चौथी व पांचवीं शताब्दी की मानी जाती हैं। यहां से नंदी और उमा-महेश्वर की प्रतिमाओं को फ्रांस और वाशिंगटन में हुए इंडिया फेस्टीवल में भी भेजा गया था। जहां यह मूर्तियां अंतरराष्ट्रीय मंच पर वाहवाही लूटने में कामयाब रहीं थीं।

हिंगलाजगढ़ किले का निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी में परमार कालिन राजाओं ने किया था। इसके बाद यहां चंद्रावतों का शासन आया तो यह खंडहरों में तब्दील हो गया। किले में मिले पाली लिपी में लिखे प्राचीन शिलाखंड मिले हैं, जो इस किले के प्राचीन इतिहास के बारे में बताते हैं। इसके अनुसार सैकड़ों वर्ष पहले चित्तौड़ पर शासन करने वाली तक्ष या तक्षक जाति का संबंध मोरी जनजाति से था।

परमार इसी मोरी जनजाति के वंशज थे। सियालकोट (वर्तमान में पाकिस्तान में है) पर 515 से 540 के बीच शासन करने वाले हूण साम्राज्य का विनाश कर दिया था। बाद में इन हूणों ने तक्षकों को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया और यहीं से हिन्दू स्वातंत्र्य पर इस्लाम की तलवार लहराने लगी।परमार काल में हिंगलाजगढ़ दुर्ग सामरिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण था और परमारों ने इसे मजबूत बनाने का काम किया। 1281 में हाड़ा शासक हालू ने इस किले पर कब्जा कर लिया और बाद में यह किला चंद्रावत शासकों के अधीन आ गया।

1773 में महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने लक्ष्मण सिंह चंद्रावत को पराजित कर किले पर आधिपत्य जमा लिया। अहिल्याबाई होलकर काल में इस किले की कई इमारतों का नवीनीकरण किया गया, जिसमें हिंगलाज माता मंदिर, राम मंदिर और शिव मंदिर प्रमुख हैं। हालांकि इस किले पर कई राजवंशों ने आधिपत्य जमाया, लेकिन किसी ने भी इसे अपनी स्थायी राजधनी नहीं बनाया। बल्कि इस किले का उपयोग छुपने या अपनी ताकत बढ़ाने की जगह के रूप में अधिक किया। यशवंतराव होलकर ने इसका पुन निर्माण कराया। देवालयों, मठों एवं रहवासी मकानों के पत्थरों का उपयोग किया और इस किले को छावनी के रूप में इस्तेमाल किया।हिंगलाजगढ़ दुर्ग का निर्माण सामरिक महत्व के अनुसार किया गया था।

इसमें चार पाटनपोल, सूरजपोल, कटरापोल और मंडलेश्वरी पोल के नाम से चार दरवाजे हैं। पहले तीन दरवाजे पूर्वमुखी और मंडलेश्वरी दरवाजा पश्चिम मुखी है। किले में पानी की पूर्ति के लिए सूरजकुंड नामक जलाशय भी बनवाया गया था।ऐतिहासिक महत्व के हिंगलाजगढ़ दुर्ग का पुनरुत्थान होगा। मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में सुदृढ़ जंगलों में एक ऐसी जगह है जहां पत्थरों में भी प्राण बसे हैं । यह है एतिहासिक हिंगलाजगढ़ जहां कदम-कदम पर प्राचीन मूर्तियां सैलानियों से बाते करती सी लगती हैं । पश्चिम मालवा की भानपुरा तहसील के ग्राम नामली से 14 कि.मी. दूर स्थित हिंगलाजगढ़ से प्राप्त पाषाण कला कृतियाँ प्रदेश के संग्रहालयों में ही नहीं अपितु विदेशों में आयोजित भारत महोत्सव में अपनी कला की अमिट छाप छोड़ चुकी हैं।

यहाँ से प्राप्त कला कृतियाँ गुप्त काल से लेकर 14 ई. के मध्य की होकर अपनी पृथक पहचान रखती है। हिंगलाजगढ़ दुर्ग परमार कला की गतिविधियों के अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है। यह प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता हिंगलाजगढ़ दुर्ग कितना प्राचीन है क्योंकि इसके ऐतिहासिक व अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त नहीं हो सके हैं। प्रतिमा शास्त्र के आधार पर यहाँ से प्राप्त प्राचीनतम प्रतिमायें 5-6वीं शताब्दी की हैं।

राज्य संरक्षित हिंगलाजगढ़ किला प्रदेश का महत्वपूर्ण पुरा-स्मारक है। यह भानपुरा से लगभग 30 कि.मी. वन क्षेत्र में है। यहाँ अभयारण्य क्षेत्र से होकर पहुँचना पड़ता है। मन्दसौर जिले के इस ऐतिहासिक किले और यहाँ के अद्भुत पाषण शिल्पों के अवलोकन के लिए बड़ी संख्या में इतिहास प्रेमी और पर्यटक आते रहते हैं। संचालनालय पुरातत्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय मध्यप्रदेश द्वारा हिंगलाजगढ़ के ऐतिहासिक किले की क्षतिग्रस्त दीवारों और किले के महत्वपूर्ण हिस्सों की मरम्मत का कार्य किया जा रहा है। यहाँ पर्यटकों के विश्राम, पेयजल जैसी आवश्यक सुविधाओं का इंतजाम भी कराया जा रहा है। किले में स्थित कचहरी महल, सूरजपोल, कटारापोल, पाटनपोल, मन्डे.ारी गेट व सूरजकुण्ड के अनुरक्षण, सुरक्षा आवश्यक विकास कार्य कराए जा रहे हैं।

रामपुरा के चन्द्रावत राजाओं के पाटनामें में 1688 ईस्वी में इसका उल्लेख एक हवेली के रूप में किया गया है। सत्ता संघर्ष 1520-1752 तक हिंगलाजगढ़ निर्वासित राजाओं की राजधानी रहा। 18वीं शताब्दी के 8वें दशक में मराठों के कब्जे में आया व इसका जीर्णोध्दार किया गया। उनके काल में दुर्ग की दीवारों का जीर्णोध्दार, हिंगलाज माता मंदिर, राम मंदिर, शिव मंदिर, कचहरी, बारा दरी रानी महल आदि का निर्माण कराया गया, जो आज हमारे कला वैभव की अमिट थाती है।

हिंगलाजगढ़ का किला मध्यप्रदेश व राजस्थान की सीमा पर स्थित है। लगभग 300 फीट गहरी व 10 किलोमीटर अर्ध्दवृत्ताकार खाई से घिरा हुआ है। इस क्षेत्र में सर्वत्र प्राचीन मंदिरों, मठों, बस्तियों व शिल्प के अवशेष प्राप्त होते हैं। जिससे स्पष्ट है कि किसी समय यह स्थान एक महत्वपूर्ण शिल्पकला का केन्द्र था। यहां चारों ओर बिखरी प्रतिमाओं के अध्ययन व एकत्रीकरण से यह महत्वपूर्ण पुरा स्थल प्राचीन शिल्प कला की अपनी विशिष्टता के लिए वि.ा विख्यात हो चुका है।

हिंगलाजगढ़ मूलत: शक्ति पीठ है। यहाँ से प्राप्त देवी प्रतिमायें शक्ति के विविध स्वरूपों को दर्शाती हैं। यहाँ से प्राप्त देवी प्रतिमाओं में गौरी प्रतिमाओं की बाहुल्यता है। गौरी के जितने रूप इस कला केन्द्र से प्राप्त हुये हैं अन्यत्र समकालीन किसी भी कला केन्द्र से प्राप्त नहीं हुये हैं। यहाँ से सप्तमातृकाओं की एकाकी प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं। इसके साथ ही जब शकित मान्यताओं में तान्त्रिक पूजा का समावेश हुआ तो हिंगजालगढ़ में योगिनी प्रतिमायें भी कलाकार द्वारा निर्मित की गयी। जिसके फलस्वरूप हमें हिंगलाजगढ़ क्षेत्र में अपराजित, वैनायकी, काव्यायनी, भुवने.ारी, बगलामुखी आदि देवियों की प्रतिमायें प्राप्त हुई।

शैव धर्म की विविध मान्यतायें इस काल में शिव के विविध रूपों के अंकन में सहायक रही जो कलाकार की प्रेरणा का स्त्रोत्र रहीं। जिसके प्रतिफल में हमें यहाँ से शिव के विभिन्न स्वरूपों की प्रतिमायें प्राप्त होती हैं। यथा अर्ध्द नारी.ार, शिव, लकुलीश, वैद्यनाथ, सदाशिव, वीणाधर, नटराज आदि।

वैष्णव प्रतिमाओं में विष्णु के विविध स्वरूपों की प्रतिमाएें भी हिंगलाजगढ़ क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। इनमें लक्ष्मीनारायण, योग नारायण, गरूड़ासीन विष्णु, वामन, नृसिंह आदि प्रमुख हैं। विविध सम्प्रदायों की आपसी प्रतिस्पर्धा से मध्यम मार्ग की हिंगलाजगढ़ किला

 

{ हिंगलाजगढ़ किले का इतिहास }

हिंगलाजगढ़ किला भानपुरा( मध्य प्रदेश) जिला मन्द्सोर ग्यारहवी शताब्दी में मालवा पर शासन करने वाले परमार राजाओं ने मंदसौर से 165 और भानपुरा से 26 किमी दूर एक अद्भुत किले का निर्माण कराया था। आज यह किला खंडहर में तब्दील हो चुका है, लेकिन इसकी बनावट और शिल्पकारी को देख वैभव के चरमकाल में इसकी बुलंदियों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। किले में गुप्त और परमार काल की चौथी और पांचवीं शताब्दी की मूर्तियां जहां इसके अद्वितीय मूर्तिशिल्प को दर्शाती हैं, वहीं किले में बने विभिन्न भवन इसके सामरिक महत्व को भी प्रदर्शित करते हैं। इस सबसे बढ़कर किले से रहस्य और रोमांच की एक अलहदा कहानी भी जुड़ी है।मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले की भानपुरा तहसील के नावली गांव में पहाड़ी पर बना हुआ है प्राचीन हिंगलाजगढ़ किला। परमार काल में यह किला अपने वैभव के चरम पर था। किले में विभिन्न कालखंडों की प्रस्तर मूर्तिशिल्प कलाकृतियां आज भी मौजूद हैं। हिंगलाजगढ़ किला लगभग 800 वर्षों तक मूर्तिशिल्प कला का केंद्र रहा है। इस किले में मिली मूर्तियां गुप्त और परमार काल की हैं।किले में मिली सबसे पुरानी मूर्तियां तो लगभग 1600 साल पुरानी हैं और चौथी व पांचवीं शताब्दी की मानी जाती हैं। यहां से नंदी और उमा-महेश्वर की प्रतिमाओं को फ्रांस और वाशिंगटन में हुए इंडिया फेस्टीवल में भी भेजा गया था। जहां यह मूर्तियां अंतरराष्ट्रीय मंच पर वाहवाही लूटने में कामयाब रहीं थीं। हिंगलाजगढ़ किले का निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी में परमार कालिन राजाओं ने किया था। इसके बाद यहां चंद्रावतों का शासन आया तो यह खंडहरों में तब्दील हो गया। किले में मिले पाली लिपी में लिखे प्राचीन शिलाखंड मिले हैं, जो इस किले के प्राचीन इतिहास के बारे में बताते हैं। इसके अनुसार सैकड़ों वर्ष पहले चित्तौड़ पर शासन करने वाली तक्ष या तक्षक जाति का संबंध मोरी जनजाति से था। परमार इसी मोरी जनजाति के वंशज थे। सियालकोट (वर्तमान में पाकिस्तान में है) पर 515 से 540 के बीच शासन करने वाले हूण साम्राज्य का विनाश कर दिया था। बाद में इन हूणों ने तक्षकों को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया और यहीं से हिन्दू स्वातंत्र्य पर इस्लाम की तलवार लहराने लगी।परमार काल में हिंगलाजगढ़ दुर्ग सामरिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण था और परमारों ने इसे मजबूत बनाने का काम किया। 1281 में हाड़ा शासक हालू ने इस किले पर कब्जा कर लिया और बाद में यह किला चंद्रावत शासकों के अधीन आ गया। 1773 में महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने लक्ष्मण सिंह चंद्रावत को पराजित कर किले पर आधिपत्य जमा लिया। अहिल्याबाई होलकर काल में इस किले की कई इमारतों का नवीनीकरण किया गया, जिसमें हिंगलाज माता मंदिर, राम मंदिर और शिव मंदिर प्रमुख हैं। हालांकि इस किले पर कई राजवंशों ने आधिपत्य जमाया, लेकिन किसी ने भी इसे अपनी स्थायी राजधनी नहीं बनाया। बल्कि इस किले का उपयोग छुपने या अपनी ताकत बढ़ाने की जगह के रूप में अधिक किया। यशवंतराव होलकर ने इसका पुन निर्माण कराया। देवालयों, मठों एवं रहवासी मकानों के पत्थरों का उपयोग किया और इस किले को छावनी के रूप में इस्तेमाल किया।हिंगलाजगढ़ दुर्ग का निर्माण सामरिक महत्व के अनुसार किया गया था। इसमें चार पाटनपोल, सूरजपोल, कटरापोल और मंडलेश्वरी पोल के नाम से चार दरवाजे हैं। पहले तीन दरवाजे पूर्वमुखी और मंडलेश्वरी दरवाजा पश्चिम मुखी है। किले में पानी की पूर्ति के लिए सूरजकुंड नामक जलाशय भी बनवाया गया था।ऐतिहासिक महत्व के हिंगलाजगढ़ दुर्ग का पुनरुत्थान होगा। मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में सुदृढ़ जंगलों में एक ऐसी जगह है जहां पत्थरों में भी प्राण बसे हैं । यह है एतिहासिक हिंगलाजगढ़ जहां कदम-कदम पर प्राचीन मूर्तियां सैलानियों से बाते करती सी लगती हैं । पश्चिम मालवा की भानपुरा तहसील के ग्राम नामली से 14 कि.मी. दूर स्थित हिंगलाजगढ़ से प्राप्त पाषाण कला कृतियाँ प्रदेश के संग्रहालयों में ही नहीं अपितु विदेशों में आयोजित भारत महोत्सव में अपनी कला की अमिट छाप छोड़ चुकी हैं। यहाँ से प्राप्त कला कृतियाँ गुप्त काल से लेकर 14 ई. के मध्य की होकर अपनी पृथक पहचान रखती है। हिंगलाजगढ़ दुर्ग परमार कला की गतिविधियों के अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है। यह प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता हिंगलाजगढ़ दुर्ग कितना प्राचीन है क्योंकि इसके ऐतिहासिक व अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त नहीं हो सके हैं। प्रतिमा शास्त्र के आधार पर यहाँ से प्राप्त प्राचीनतम प्रतिमायें 5-6वीं शताब्दी की हैं।

राज्य संरक्षित हिंगलाजगढ़ किला प्रदेश का महत्वपूर्ण पुरा-स्मारक है। यह भानपुरा से लगभग 30 कि.मी. वन क्षेत्र में है। यहाँ अभयारण्य क्षेत्र से होकर पहुँचना पड़ता है। मन्दसौर जिले के इस ऐतिहासिक किले और यहाँ के अद्भुत पाषण शिल्पों के अवलोकन के लिए बड़ी संख्या में इतिहास प्रेमी और पर्यटक आते रहते हैं। संचालनालय पुरातत्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय मध्यप्रदेश द्वारा हिंगलाजगढ़ के ऐतिहासिक किले की क्षतिग्रस्त दीवारों और किले के महत्वपूर्ण हिस्सों की मरम्मत का कार्य किया जा रहा है। यहाँ पर्यटकों के विश्राम, पेयजल जैसी आवश्यक सुविधाओं का इंतजाम भी कराया जा रहा है। किले में स्थित कचहरी महल, सूरजपोल, कटारापोल, पाटनपोल, मन्डे.ारी गेट व सूरजकुण्ड के अनुरक्षण, सुरक्षा आवश्यक विकास कार्य कराए जा रहे हैं।

रामपुरा के चन्द्रावत राजाओं के पाटनामें में 1688 ईस्वी में इसका उल्लेख एक हवेली के रूप में किया गया है। सत्ता संघर्ष 1520-1752 तक हिंगलाजगढ़ निर्वासित राजाओं की राजधानी रहा। 18वीं शताब्दी के 8वें दशक में मराठों के कब्जे में आया व इसका जीर्णोध्दार किया गया। उनके काल में दुर्ग की दीवारों का जीर्णोध्दार, हिंगलाज माता मंदिर, राम मंदिर, शिव मंदिर, कचहरी, बारा दरी रानी महल आदि का निर्माण कराया गया, जो आज हमारे कला वैभव की अमिट थाती है। हिंगलाजगढ़ का किला मध्यप्रदेश व राजस्थान की सीमा पर स्थित है। लगभग 300 फीट गहरी व 10 किलोमीटर अर्ध्दवृत्ताकार खाई से घिरा हुआ है। इस क्षेत्र में सर्वत्र प्राचीन मंदिरों, मठों, बस्तियों व शिल्प के अवशेष प्राप्त होते हैं। जिससे स्पष्ट है कि किसी समय यह स्थान एक महत्वपूर्ण शिल्पकला का केन्द्र था। यहां चारों ओर बिखरी प्रतिमाओं के अध्ययन व एकत्रीकरण से यह महत्वपूर्ण पुरा स्थल प्राचीन शिल्प कला की अपनी विशिष्टता के लिए वि.ा विख्यात हो चुका है।

हिंगलाजगढ़ मूलत: शक्ति पीठ है। यहाँ से प्राप्त देवी प्रतिमायें शक्ति के विविध स्वरूपों को दर्शाती हैं। यहाँ से प्राप्त देवी प्रतिमाओं में गौरी प्रतिमाओं की बाहुल्यता है। गौरी के जितने रूप इस कला केन्द्र से प्राप्त हुये हैं अन्यत्र समकालीन किसी भी कला केन्द्र से प्राप्त नहीं हुये हैं। यहाँ से सप्तमातृकाओं की एकाकी प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं। इसके साथ ही जब शकित मान्यताओं में तान्त्रिक पूजा का समावेश हुआ तो हिंगजालगढ़ में योगिनी प्रतिमायें भी कलाकार द्वारा निर्मित की गयी। जिसके फलस्वरूप हमें हिंगलाजगढ़ क्षेत्र में अपराजित, वैनायकी, काव्यायनी, भुवने.ारी, बगलामुखी आदि देवियों की प्रतिमायें प्राप्त हुई।

शैव धर्म की विविध मान्यतायें इस काल में शिव के विविध रूपों के अंकन में सहायक रही जो कलाकार की प्रेरणा का स्त्रोत्र रहीं। जिसके प्रतिफल में हमें यहाँ से शिव के विभिन्न स्वरूपों की प्रतिमायें प्राप्त होती हैं। यथा अर्ध्द नारी.ार, शिव, लकुलीश, वैद्यनाथ, सदाशिव, वीणाधर, नटराज आदि।

वैष्णव प्रतिमाओं में विष्णु के विविध स्वरूपों की प्रतिमाएें भी हिंगलाजगढ़ क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। इनमें लक्ष्मीनारायण, योग नारायण, गरूड़ासीन विष्णु, वामन, नृसिंह आदि प्रमुख हैं। विविध सम्प्रदायों की आपसी प्रतिस्पर्धा से मध्यम मार्ग की कल्पना के संयुक्त स्वरूपों की कल्पना हुई जिसके कारण कलाकार ने भी अपनी कला में इन विचारों की अभिव्यक्ति प्रतिमाओं के माध्यम से की। यथा हरिहर, हरिहरार्क, हरिहरार्क पितामह आदि। यहाँ से सूर्य तथा आदि अनेक देवी-देवताओं की प्रतिमायें भी यथेष्ठ मात्रा में प्राप्त हुई हैं। जो कलाकार की विशाल मानसिकता की परिचायक हैं जिनें अष्टदि्कपाल कार्तिकेय, गणेश आदि प्रमुख हैं।

जैन धर्म का अपना स्वतन्त्र पक्ष है। हिंगलाजगढ़ की कला में इस धर्म को यथेष्ठ स्थान हिंगलाजगढ़ माताजी एवं किला -जय माँ हिंगलाज

{ हिंगलाजगढ़ किले का इतिहास }-अष्टमी दर्शन

हिंगलाजगढ़ किला भानपुरा( मध्य प्रदेश) जिला मन्द्सोर ग्यारहवी शताब्दी में मालवा पर शासन करने वाले परमार राजाओं ने मंदसौर से 165 और भानपुरा से 26 किमी दूर एक अद्भुत किले का निर्माण कराया था। आज यह किला खंडहर में तब्दील हो चुका है, लेकिन इसकी बनावट और शिल्पकारी को देख वैभव के चरमकाल में इसकी बुलंदियों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। किले में गुप्त और परमार काल की चौथी और पांचवीं शताब्दी की मूर्तियां जहां इसके अद्वितीय मूर्तिशिल्प को दर्शाती हैं, वहीं किले में बने विभिन्न भवन इसके सामरिक महत्व को भी प्रदर्शित करते हैं। इस सबसे बढ़कर किले से रहस्य और रोमांच की एक अलहदा कहानी भी जुड़ी है।मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले की भानपुरा तहसील के नावली गांव में पहाड़ी पर बना हुआ है प्राचीन हिंगलाजगढ़ किला। परमार काल में यह किला अपने वैभव के चरम पर था। किले में विभिन्न कालखंडों की प्रस्तर मूर्तिशिल्प कलाकृतियां आज भी मौजूद हैं। हिंगलाजगढ़ किला लगभग 800 वर्षों तक मूर्तिशिल्प कला का केंद्र रहा है। इस किले में मिली मूर्तियां गुप्त और परमार काल की हैं।किले में मिली सबसे पुरानी मूर्तियां तो लगभग 1600 साल पुरानी हैं और चौथी व पांचवीं शताब्दी की मानी जाती हैं। यहां से नंदी और उमा-महेश्वर की प्रतिमाओं को फ्रांस और वाशिंगटन में हुए इंडिया फेस्टीवल में भी भेजा गया था। जहां यह मूर्तियां अंतरराष्ट्रीय मंच पर वाहवाही लूटने में कामयाब रहीं थीं। हिंगलाजगढ़ किले का निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी में परमार कालिन राजाओं ने किया था। इसके बाद यहां चंद्रावतों का शासन आया तो यह खंडहरों में तब्दील हो गया। किले में मिले पाली लिपी में लिखे प्राचीन शिलाखंड मिले हैं, जो इस किले के प्राचीन इतिहास के बारे में बताते हैं। इसके अनुसार सैकड़ों वर्ष पहले चित्तौड़ पर शासन करने वाली तक्ष या तक्षक जाति का संबंध मोरी जनजाति से था। परमार इसी मोरी जनजाति के वंशज थे। सियालकोट (वर्तमान में पाकिस्तान में है) पर 515 से 540 के बीच शासन करने वाले हूण साम्राज्य का विनाश कर दिया था। (भानपुरा मेरी जान) बाद में इन हूणों ने तक्षकों को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया और यहीं से हिन्दू स्वातंत्र्य पर इस्लाम की तलवार लहराने लगी।परमार काल में हिंगलाजगढ़ दुर्ग सामरिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण था और परमारों ने इसे मजबूत बनाने का काम किया। 1281 में हाड़ा शासक हालू ने इस किले पर कब्जा कर लिया और बाद में यह किला चंद्रावत शासकों के अधीन आ गया। 1773 में महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने लक्ष्मण सिंह चंद्रावत को पराजित कर किले पर आधिपत्य जमा लिया। अहिल्याबाई होलकर काल में इस किले की कई इमारतों का नवीनीकरण किया गया, जिसमें हिंगलाज माता मंदिर, राम मंदिर और शिव मंदिर प्रमुख हैं। हालांकि इस किले पर कई राजवंशों ने आधिपत्य जमाया, लेकिन किसी ने भी इसे अपनी स्थायी राजथानी नहीं बनाया। बल्कि इस किले का उपयोग छुपने या अपनी ताकत बढ़ाने की जगह के रूप में अधिक किया। यशवंतराव होलकर ने इसका पुन निर्माण कराया। देवालयों, मठों एवं रहवासी मकानों के पत्थरों का उपयोग किया और इस किले को छावनी के रूप में इस्तेमाल किया।हिंगलाजगढ़ दुर्ग का निर्माण सामरिक महत्व के अनुसार किया गया था। इसमें चार पाटनपोल, सूरजपोल, कटरापोल और मंडलेश्वरी पोल के नाम से चार दरवाजे हैं। पहले तीन दरवाजे पूर्वमुखी और मंडलेश्वरी दरवाजा पश्चिम मुखी है। किले में पानी की पूर्ति के लिए सूरजकुंड नामक जलाशय भी बनवाया गया था।ऐतिहासिक महत्व के हिंगलाजगढ़ दुर्ग का पुनरुत्थान होगा। मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में सुदृढ़ जंगलों में एक ऐसी जगह है जहां पत्थरों में भी प्राण बसे हैं । यह है एतिहासिक हिंगलाजगढ़ जहां कदम-कदम पर प्राचीन मूर्तियां सैलानियों से बाते करती सी लगती हैं । पश्चिम मालवा की भानपुरा तहसील के ग्राम नामली से 14 कि.मी. दूर स्थित हिंगलाजगढ़ से प्राप्त पाषाण कला कृतियाँ प्रदेश के संग्रहालयों में ही नहीं अपितु विदेशों में आयोजित भारत महोत्सव में अपनी कला की अमिट छाप छोड़ चुकी हैं। यहाँ से प्राप्त कला कृतियाँ गुप्त काल से लेकर 14 ई. के मध्य की होकर अपनी पृथक पहचान रखती है। हिंगलाजगढ़ दुर्ग परमार कला की गतिविधियों के अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है। यह प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता हिंगलाजगढ़ दुर्ग कितना प्राचीन है क्योंकि इसके ऐतिहासिक व अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त नहीं हो सके हैं। प्रतिमा शास्त्र के आधार पर यहाँ से प्राप्त प्राचीनतम प्रतिमायें 5-6वीं शताब्दी की हैं।

राज्य संरक्षित हिंगलाजगढ़ किला प्रदेश का महत्वपूर्ण पुरा-स्मारक है। यह भानपुरा से लगभग 30 कि.मी. वन क्षेत्र में है। यहाँ अभयारण्य क्षेत्र से होकर पहुँचना पड़ता है। मन्दसौर जिले के इस ऐतिहासिक किले और यहाँ के अद्भुत पाषण शिल्पों के अवलोकन के लिए बड़ी संख्या में इतिहास प्रेमी और पर्यटक आते रहते हैं। संचालनालय पुरातत्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय मध्यप्रदेश द्वारा हिंगलाजगढ़ के ऐतिहासिक किले की क्षतिग्रस्त दीवारों और किले के महत्वपूर्ण हिस्सों की मरम्मत का कार्य किया जा रहा है। यहाँ पर्यटकों के विश्राम, पेयजल जैसी आवश्यक सुविधाओं का इंतजाम भी कराया जा रहा है। किले में स्थित कचहरी महल, सूरजपोल, कटारापोल, पाटनपोल, मन्डे.ारी गेट व सूरजकुण्ड के अनुरक्षण, सुरक्षा आवश्यक विकास कार्य कराए जा रहे हैं।

रामपुरा के चन्द्रावत राजाओं के पाटनामें में 1688 ईस्वी में इसका उल्लेख एक हवेली के रूप में किया गया है। सत्ता संघर्ष 1520-1752 तक हिंगलाजगढ़ निर्वासित राजाओं की राजधानी रहा। 18वीं शताब्दी के 8वें दशक में मराठों के कब्जे में आया व इसका जीर्णोध्दार किया गया। उनके काल में दुर्ग की दीवारों का जीर्णोध्दार, हिंगलाज माता मंदिर, राम मंदिर, शिव मंदिर, कचहरी, बारा दरी रानी महल आदि का निर्माण कराया गया, जो आज हमारे कला वैभव की अमिट थाती है। हिंगलाजगढ़ का किला मध्यप्रदेश व राजस्थान की सीमा पर स्थित है। लगभग 300 फीट गहरी व 10 किलोमीटर अर्ध्दवृत्ताकार खाई से घिरा हुआ है। इस क्षेत्र में सर्वत्र प्राचीन मंदिरों, मठों, बस्तियों व शिल्प के अवशेष प्राप्त होते हैं। जिससे स्पष्ट है कि किसी समय यह स्थान एक महत्वपूर्ण शिल्पकला का केन्द्र था। यहां चारों ओर बिखरी प्रतिमाओं के अध्ययन व एकत्रीकरण से यह महत्वपूर्ण पुरा स्थल प्राचीन शिल्प कला की अपनी विशिष्टता के लिए वि.ा विख्यात हो चुका है।

हिंगलाजगढ़ मूलत: शक्ति पीठ है। यहाँ से प्राप्त देवी प्रतिमायें शक्ति के विविध स्वरूपों को दर्शाती हैं। यहाँ से प्राप्त देवी प्रतिमाओं में गौरी प्रतिमाओं की बाहुल्यता है। गौरी के जितने रूप इस कला केन्द्र से प्राप्त हुये हैं अन्यत्र समकालीन किसी भी कला केन्द्र से प्राप्त नहीं हुये हैं। यहाँ से सप्तमातृकाओं की एकाकी प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं। इसके साथ ही जब शकित मान्यताओं में तान्त्रिक पूजा का समावेश हुआ तो हिंगजालगढ़ में योगिनी प्रतिमायें भी कलाकार द्वारा निर्मित की गयी। जिसके फलस्वरूप हमें हिंगलाजगढ़ क्षेत्र में अपराजित, वैनायकी, काव्यायनी, भुवने.ारी, बगलामुखी आदि देवियों की प्रतिमायें प्राप्त हुई।

शैव धर्म की विविध मान्यतायें इस काल में शिव के विविध रूपों के अंकन में सहायक रही जो कलाकार की प्रेरणा का स्त्रोत्र रहीं। जिसके प्रतिफल में हमें यहाँ से शिव के विभिन्न स्वरूपों की प्रतिमायें प्राप्त होती हैं। यथा अर्ध्द नारी.ार, शिव, लकुलीश, वैद्यनाथ, सदाशिव, वीणाधर, नटराज आदि।

वैष्णव प्रतिमाओं में विष्णु के विविध स्वरूपों की प्रतिमाएें भी हिंगलाजगढ़ क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। इनमें लक

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
WhatsApp Icon
Whatsapp
ज्वॉइन करें
site-below-footer-wrap[data-section="section-below-footer-builder"] { margin-bottom: 40px;}