सीतामऊ साहित्य आयोजन,पुस्तकों और पठनीयता की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने की जरूरत
सीतामऊ साहित्य आयोजन,पुस्तकों और पठनीयता की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने की जरूरत
हरनाम सिंह
वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार
प्रगतिशील लेखक संघ राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य
वर्तमान निवास बिचोली मरदाना इंदौर
मंदसौर जिला प्रशासन बड़े शहरों की तर्ज पर सीतामऊ में साहित्य उत्सव मनाने जा रहा है। मंदसौर जिले के इस नगर की पहचान विश्व विख्यात नटनागर शोध संस्थान, रघुवीर लाइब्रेरी एवं निकटवर्ती क्षेत्र की पुरा संपदा के कारण है। तीन दिवसीय यह आयोजन 30 जनवरी से प्रारंभ होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस आयोजन में निरंतर गिरती पठनीयता और पुस्तकों की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने के बारे में विचार-विमर्श होगा। तथा संवाद के ठोस परिणाम भी निकलेंगे ताकि आमजन अपनी संस्कृति परंपरा के प्रति जिम्मेदारी समझे।
अमूमन कला साहित्य के क्षेत्र में शासन के हस्तक्षेप पर सवाल उठाए जाते रहे हैं। माना जाता है कि सरकारें अक्सर कला और संस्कृति का उपयोग अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए करती है। सरकारी दखल से लेखकों, कलाकारों की रचनात्मक प्रभावित होती है।
कला साहित्य और संस्कृति को समाज का दर्पण कहा गया है जो समाज के मूल्यों, विश्वासों और इतिहास को प्रतिबिंबित करता है। इस क्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेप राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करता है।
मध्य प्रदेश में दिवंगत मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के कार्यकाल में कवि अशोक बाजपेई प्रशासनिक अधिकारी थे। उनकी सलाह पर 1982 में सरकार ने एक बहुमुखी संस्कृति केंद्र “भारत भवन” का निर्माण करवाया था। उसके व्यवस्थापन पर विवाद हुआ। समकालीन संस्कृति कर्मियों ने इसे हस्तक्षेप के रूप में देखा। कला समाज में बड़ी भूमिका निभाती है। इसलिए सरकार की जिम्मेदारी है कि वह कला को वित्त पोषित करें, रचनात्मक शेष गतिविधियों की जिम्मेदारी कलाकारों, लेखकों पर छोड़ दी जानी चाहिए।
साहित्य के पतन पर भी हो चर्चा
सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार साहित्य महोत्सव में कला, दर्शन के माध्यम से वैभवशाली संस्कृति पर चर्चा होगी। यहां तक तो ठीक है, लेकिन वर्तमान में कला, साहित्य के अवमूल्यन उस पर बाजारवाद के प्रभाव ने मानवीय संवेदना, करुणा, सुरुचि कलात्मक अभिव्यक्ति को खरीदने बेचने की पण्य वस्तु बना दिया है। कवि सम्मेलनों के नाम पर चुटकुले बाजी। स्टैंड अप कॉमेडी के बाद कारपोरेट मीडिया के लिटरेचर फेस्टिवल ऐसे ही प्रयास हैं। शहरों से ही नहीं रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्मों से पुस्तकों और साहित्य बिक्री की दुकानें बंद हो गई है। अगर कहीं है भी तो वहां रंगीन पन्नों की सस्ती मैगजीन अथवा शिक्षित नौजवानों को नौकरी की तैयारी के लिए पत्रिकाएं ही मिलती है। शिक्षण संस्थानों से ही नहीं नगरों में से भी सार्वजनिक पुस्तकालय लुप्त हो गए हैं। मंदसौर के विख्यात वाचनालय, पुस्तकालय “विद्या विहार” की बदहाली इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। किसी काल में विद्या विहार के संचालन का दायित्व साहित्यकार अथवा उच्च शिक्षित व्यक्ति करते थे। वर्तमान में उसे दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों के हवाले कर दिया गया है। पुस्तकालयों के लिए बजट का प्रावधान ही नहीं रखा गया है। पुराना साहित्य गट्ठरों में बंधा अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। भोपाल स्थित साहित्य अकादमी के गोदाम पुस्तकों से पटे पड़े हैं। जिसे पाठकों तक पहुंचाया जाना चाहिए।
जिले का गौरव है नटनागर शोध संस्थान
यह विडंबना ही है की मंदसौर जिले की पहचान अफीम की खेती, मादक पदार्थों की तस्करी से होती है। जबकि जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर सीतामऊ का नट नगर शोध संस्थान को जिले की पहचान के रूप में स्थापित किए जाने की जरूरत है।
देश के राज्य रजवाड़े अपने महलों, राजसी ठाठ-बाट , शान- शौकत, हीरे जवाहरात कीमती कारों, के कारण पहचाने जाते रहे हैं। ऐसे काल में विलासिता से हटकर एक राजा अध्ययन, लेखन, शोध पुरातत्व में जुनून की हद तक रूचि दिखाए,यह आश्चर्यजनक है। ऐसा कर दिखाया सीतामऊ के अंतिम शासक महाराजा कुमार रघुवीर सिंह ने। जिनका जन्म सीतामऊ के नजदीक लदुना में 1908 में हुआ 1936 में उन्होंने रघुवीर पुस्तकालय खोला था, कालांतर में उन्होंने 1974 में अपने पुरखे कवि रतन सिंह नट नागर के नाम से शोध संस्थान की स्थापना की। मध्यकालीन भारतीय इतिहास के शोध हेतु इस संस्थान की विश्व स्तर पर ख्याति है।
नटनगर शोध संस्थान में 45 हजार दुर्लभ प्रकाशित पुस्तकें हजारों पांडुलिपियां संग्रहित है। संस्थान में हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी, मराठी की 6 हजार दुर्लभ पांडुलिपियों का संग्रह है। पुस्तकालय में 5458 पुराशेष, इतिहास और पौराणिक कथाओं से संबंधित 1330 ग्रंथ, धर्मशास्त्र पर 1438, वेद व उपनिषदों पर 59, संगीत और नृत्य संबंधित 41, जैन धर्म से संबंधित 117 ,दर्शनशास्त्र पर 46, आयुर्वेद पर 97, गीता व कुरान से संबंधित 28, ज्योतिष व गणित पर 248, हिंदी साहित्य से संबंधित हस्तलिखित 297 ग्रंथ। काव्य नाटक और अलंकरण संबंधी 1649, वास्तु कला एवं शिल्प से संबंधित 80, भूगोल पर 15, योग पर तीन, विभिन्न कलाओं पर 19 के अलावा अनेक राज कवियों की हजारों किताबें हैं।
संग्रहालय में यूरोपियन देशों के एक लाख पत्रों की माइक्रो फिल्में पुणे के पेशवा कार्यालय में संग्रहित फारसी शिलालेखों की 30 हजार फोटोकॉपी, माइक्रोफिल्में संग्रहित है। भारतीय भाषाओं में लिखे गए हजारों ग्रंथ जो विदेशी संग्रहालय में सुरक्षित हैं उनकी भी माइक्रोफिल्में, फोटो स्टेट प्रतिलिपियां मौजूद है। रघुवीर सिंह ने 1938 में इंग्लैंड से माइक्रोफिल्म को पढ़ने की मशीन मंगवाई थी। यहां 1921 में से लेकर अब तक की अधिकांश हिंदी और अंग्रेजी पत्रिकाओं की प्रतिलिपियां मौजूद है। देसी रियासतों, मुगल काल के बादशाह, सिंधु , गुजरात, राजस्थान के राजाओं के अनगिनत दस्तावेज भी संग्रहीत हैं।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू डॉ रघुवीर सिंह से प्रभावित थे। उन्होंने उनके पुस्तकालय एवं पुरा सामग्री के लिए दिल्ली में स्थान उपलब्ध करवाने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन महाराज कुमार ने स्वीकार नहीं किया। नेहरू जी ने उनकी विद्वता से प्रभावित होकर 1952 से 1967 तक उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया था।
नटनागर शोध संस्थान को पर्यटन सर्कल से जोड़ा जाना चाहिए। उज्जैन से उदयपुर जाने वाले पर्यटकों के लिए यहां सुविधाएं जुटाने की जरूरत है। कुछ वर्ष पूर्व बिना तैयारी के पर्यटन बस चलाई गई थी जिसे असफल होना ही था। उम्मीद है इस महोत्सव में इस पर भी विचार किया जाएगा।
संरक्षण की जरूरत
कला, साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। मालवा का माच, तुर्रा कलगी कला विलुप्त सी हो गई है। इसको बचाए जाने की जरूरत है। लोक कलाओं को ढो रहे परंपरागत कलाकारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। जिले में संस्कृति के अध्ययन हेतु एक केंद्र बनाकर नवोदय कलाकारों, लेखकों, पत्रकारों, संस्कृति कर्मियों को उसे जोड़ा जा सकता है। विभिन्न कलाओं के मूर्धन्य प्रतिष्ठित कलाकारों के लिए मान- सम्मान मानदेय, पुरस्कार दिए जाएं। लुप्त होते लोकगीतों, लोक नृत्यों, वाद्य यंत्रों के संरक्षण की भी जरूरत है।