हिंदुत्व के बढ़ते असर से राहुल गांधी की सलाहकार मंडली भी विचलित नजर आ रही है ?
हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों का असर भारत की राजनीति पर दिखने लगा!- विशेष विश्लेषण
ताल ब्यूरो चीफ –शिवशक्ति शर्मा
हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों ने नरेंद्र मोदी विरोधी लेफ्ट लिबरल ईको सिस्टम को हिला दिया है। कनाडा और बांग्लादेश में चल रहे घटनाक्रम और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी ने इस विचलन और बेचैनी को और बढ़ा दिया है। बांग्लादेश की घटनाओं का असर यह है कि पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी को भी स्टैंड लेना पड़ा है। इधर महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों से कट्टरपंथी मुल्ला मौलवी भी घबरा गए हैं। पिछले तीन महीनों से जिस तरह से कट्टरपंथियों ने वक्फ बिल के खिलाफ जगह-जगह सम्मेलन कर जहर उगलना प्रारंभ कर दिया था वो अचानक बंद हो गया है। संभल की घटनाओं से भी मुस्लिम कट्टरपंथी बेचैनी में दिख रहे हैं। हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम का असर इंडिया ब्लॉक पर भी साफ तौर पर देखा जा रहा है। ममता बनर्जी बांग्लादेश के मुद्दे के अलावा अडानी के मुद्दे पर भी कांग्रेस से सहमत नहीं है। दूसरी तरफ कांग्रेस के तमिलनाडु के कई नेता और इंडिया ब्लॉक की प्रमुख पार्टी डीएमके कांग्रेस की ईवीएम केखिलाफ चल रही मुहिम के समर्थक नहीं है। केंद्रीय गृहमंत्री रहे पी चिदंबरम और उनके सांसद पुत्र कार्ति चिदंबरम ने तो बाकायदा मीडिया के सामने कहा कि ईवीएम के उपयोग में कोई खराबी नहीं है। कार्ति चिदंबरम ने कहा कि बैलेट पेपर के युग में अब वापस नहीं लौट जा सकता। पी चिदंबरम ने तो यहां तक कहा कि उनका व्यक्तिगत अनुभव है कि जब बैलेट पेपर से चुनाव होते थे, तो अनेक तरह की गड़बड़ियां होती थी, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के कारण चुनाव ज्यादा निष्पक्ष और पारदर्शी हो गए हैं। जाहिर है राहुल के तमाम तीर बेअसर साबित हो रहे हैं। यह ध्यान में रखना चाहिए कि राहुल गांधी आजकल लेफ्ट लिबरल गैर सरकारी संगठनों के भरोसे राजनीति करते हैं। जाहिर है राहुल की सलाहकार मंडली भी बेचैन है। इधर डोनाल्ड ट्रंप की वापसी के कारण भी अमेरिका का डीप स्टेट और भारत के अर्बन नक्सली घबराए हुए हैं। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि अमेरिका का डीप स्टेट दुनिया भर के राष्ट्रवादियों के खिलाफ तरह-तरह के नैरेटिव बिल्ट करता है। यह डीप स्टेट ईसाई और श्वेतवादी नस्ल भेद समर्थक कट्टरपंथियों के तो विरोध में रहता है लेकिन इस्लामी कट्टरपंथियों को हमेशा खाद पानी मुहैया करता रहता है। भारत में पिछले 5,6 दशकों से यही सब चल रहा है। लेफ्ट लिबरल इको सिस्टम 2019 के चुनाव परिणाम से भी इतना विचलित नहीं था, जितना इस बार महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों के बाद दिख रहा है। जाहिर है देश की राजनीति बदलती जा रही है। भाजपा लगभग दो वर्षों बाद एक बार फिर देश का पॉलीटिकल एजेंडा तय करने की स्थिति में है।
बांग्लादेश की घटनाओं ने भारत में असर डाला
बांग्लादेश की घटनाओं ने भारत के राजनीतिक माहौल पर जबरदस्त असर डाला है। जिस तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बांग्लादेश की घटनाओं के विरोध का मोर्चा लिया है उससे न केवल लेफ्ट लिबरल ईको सिस्टम बल्कि केंद्र सरकार भी दबाव में है। दरअसल बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर कातिलाना हमले पर आई प्रतिक्रिया कुछ सवाल पैदा करती है कि क्या बांग्लादेश की कट्टरपंथी जमात और हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचारों पर भारत सरकार का यह रुख पर्याप्त है? क्या प्रधानमंत्री मोदी को वहां की अंतरिम सरकार के मुखिया मुहम्मद यूनुस से सख्त लहजे में बात नहीं करनी चाहिए? क्या बांग्लादेश को 1971 की याद नहीं दिलानी चाहिए? आम भारतीय नहीं जानते कि कूटनीति क्या कहती है, लेकिन आम भारतीय वहां के हिंदुओं के अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं।
बांग्ला हिंदू भी बुनियादी तौर पर ‘भारतीय’ ही हैं। चिंतित सरोकार तो यह है कि यूनुस मौजूदा घटनाओं और हत्याओं को ‘हिंदू अत्याचार’ मानते ही नहीं! बांग्लादेश की सड़क़ों पर जो बेखौफ भीड़ दिखाई देती है, हिंदुओं को मारने-काटने के जो नारे बुलंद किए जा रहे हैं, रात में हिंदुओं के घरों में घुसकर सेना और पुलिस जो यातनाएं दे रही हैं, अपहरण-धर्मांतरण किए जा रहे हैं, मंदिरों में देवी-देवताओं की जिस तरह प्रतिमाएं खंडित की जा रही हैं, क्या वे खुद हिंदू ही कर रहे हैं? भारत के हिंदू हों या बांग्लादेश में बसे हिंदू हों, सभी सनातनी संस्कृति के आस्थावान समुदाय हैं। उनके जीवन और धार्मिक स्वतंत्रता की सुरक्षा करना प्रधानमंत्री मोदी का ही समान दायित्व है। यह बांग्लादेश का आंतरिक मामला नहीं है। वहां के कट्टरपंथी तो बांग्लादेश को हिंदू-मुक्त करना चाहते हैं।
वे ऐसे ऐलान भी करते रहे हैं। स्थानीय विश्वविद्यालयों से हिंदू प्रोफेसरों को जबरन निकाला जाता रहा है। वहां की सरकार खामोश, कन्नी काट कर बैठी रहेगी, तो क्या भारत सरकार भी तटस्थ बनी रहेगी? शायद बांग्लादेश की मौजूदा पीढ़ी को याद नहीं है कि 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश बनाने में भारत का निर्णायक योगदान था। यदि भारतीय सेना तत्कालीन ‘मुक्तिवाहिनी’ के आंदोलन के साथ न जुड़ती, तो शायद बांग्लादेश ही न बनता! बेखौफ, बेलगाम घूमती कट्टरपंथी जमात को यह इतिहास पढ़ाया जाना चाहिए। बांग्लादेश की मौजूदा पीढ़ी को यह भी याद नहीं होगा कि जब ‘बांग्लादेश’ बन रहा था, तब चारों ओर भुखमरी, गरीबी के ही हालात थे। उस दौर में ‘इस्कॉन’ ने ही रोजाना लाखों लोगों को भोजन मुहैया कराया था। भारत में भी करीब 12,000 बांग्लादेशियों को हर रोज खाना खिलाया गया था। आज भी बांग्लादेश में ‘इस्कॉन’ 77 मंदिरों का संचालन कर रहा है और 75,000 से अधिक उसके अनुयायी हैं।
प्रख्यात सितारवादक पंडित रवि शंकर ने एक अन्य विदेशी संगीतकार के साथ मिल कर न्यूयॉर्क में कंसर्ट किया था, जिससे बांग्लादेश के लिए 100 करोड़ रुपए जुटाए गए थे। क्या बांग्लादेशी उस एहसान की कीमत चुका सकते हैं? क्या उसी ‘इस्कॉन’ को हिंदू-विरोधी जमात ‘आतंकवादी’ करार देगी? यह तो संतोष की बात है और उसके लिए अदालत के नीर-क्षीर विवेक का आभार व्यक्त करना चाहिए कि ढाका उच्च न्यायालय ने ‘इस्कॉन’ पर प्रतिबंध लगाने से इंकार कर दिया और हुकूमत समर्थित याचिका को खारिज कर दिया। बहरहाल, हिंदुओं की सुरक्षा की सबसे अधिक जिम्मेदारी भारत सरकार की बनती है।