दो जैनाचार्यों के मोक्षगामी होने पर सीतामऊ में शोकसभा का आयोजन कर दी श्रद्धांजलि

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सीतामऊ: दिगंबर समाज के विश्व प्रसिद्ध जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज साहब एवं तपागत समाज के आचार्य गच्छाधिपति श्री दौलत सागर जी महाराज साहब का देवलोक गमन होने पर पूरा समाज स्तब्ध है उनके निधन से पूरे विश्व के जैन समाज को पूर्ण क्षति हुई है इस अवसर पर आचार्य श्री को श्रद्धांजलि देने के लिए एक शोक सभा का आयोजन किया गया
जिसमें जैन समाज के वक्ताओं द्वारा आचार्य के त्याग तपस्या अहिंसा की महत्वता को बदलते हुए कहा कि यह वर्तमान के महावीर थे त्याग तपस्या की मूर्ति थे ऐसे बिरले आचार्य को कोटि-कोटि नमन इनके देवलोक दमन से समाज में निराशा है समाज को दिशा देने वाले आज हमारे बीच नहीं रहे उनका प्रभाव सकल जैन समाज के अलावा अन्य समाज में भी काफी था
इस अवसर पर सकल जैन समाज अध्यक्ष शैलेंद्र भंसाली मूर्ति पूजक संघ के अध्यक्ष डॉ अरविंद जैन दिगंबर जैन समाज के वरिष्ठ प्रकाश चंद श्रीमाल श्री हेमंत जी श्रीमाल स्थानक भवन के वरिष्ठ सुजानमाल जैन सागरमल जैन प्रकाशचंद पटवारी सुरेश दसेरा प्रदीप जैन दिलीप पटवा प्रकाश ओसवाल निलेश पटवा महेंद्र ओसवाल अभय ओसवाल हेमंत जैन विवेक जैन पवन जैन एवम् समाज के वक्ताओं ने इनके जीवन पर प्रकाश डाला एवम् विन्यांजलि अर्पित की तथा ईश्वर से कामना की जैन समाज में संत के रूप में ही नया जीवन दे जिसे जैन समाज में नई ऊर्जा का संचार होगा
आचार्य श्री विद्यासागर जी का जीवन-
जीवन-मूल्यों को प्रतिस्ठित करने वाले बाल ब्रह्मचारी श्री विद्यासागर जी स्वभाव से सरल और सब जीवों के प्रति मित्रवत व्यवहार के संपोषक हैं, इसी के कारण उनके व्यक्तित्व में विश्व-बन्धुत्व की, मानवता की सौंधी-सुगन्ध विद्यमान है।
आश्विन शरदपूर्णिमा संवत 2003 तदनुसार 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक प्रांत के बेलग्राम जिले के सुप्रसिद्ध सदलगा ग्राम में श्रेष्ठी श्री मलप्पा पारसप्पा जी अष्टगे एवं श्रीमती श्रीमतीजी के घर जन्मे इस बालक का नाम विद्याधर रखा गया। धार्मिक विचारों से ओतप्रोत, संवेदनशील सद्गृहस्थ मल्लपा जी नित्य जिनेन्द्र दर्शन एवं पूजन के पश्चात ही भोजनादि आवश्यक करते थे। साधु-सत्संगति करने से परिवार में संयम, अनुशासन, रीति-नीति की चर्या का ही परिपालन होता था।
आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान है। बडे भाई श्री महावीर प्रसाद स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करते हुए सात्विक पूर्वक सद्गृहस्थ जीवन-यापन कर रहे हैं। माता-पिता, दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हुए। धन्य है वह परिवार जिसमें सात सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं। इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है।
गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वृद्धावस्था एवं साइटिकासे रुग्ण शरीर की सेवा में कडकडाती शीत हो या तमतमाती धूप, य हो झुलसाती गृष्म की तपन, मुनि विद्यासागर के हाथ गुरुसेवा मे अहर्निश तत्पर रहते। आपकी गुरु सेवा अद्वितीय रही, जो देश, समाज और मानव को दिशा बोध देने वाली थी। तही तो डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा था कि 10 लाख की सम्पत्ति पाने वाला पुत्र भी जितनी माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकता, उतनी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक आपने अपने गुरुवर की सेवा की थी।
किंतु सल्लेखना के पहले गुरुवर्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर आपने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर की, परंतु आप इस गुरुतर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुए, तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा के साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा। गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये। तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीया, संवत 2029, बुधवार, 22 नवम्बर,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले – “ हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं। अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें।“ आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निमर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।
103 वर्षीय आचार्य श्री श्री दौलत सागर जी का जीवन-
गच्छाधिपति जैन धर्म के 32 आचार्यों, अनेक उपाध्याय, पन्यास मुनियों सहित करीब 850 साधु-साध्वियों के गणनायक थे।