आलेख/ विचारमंदसौरमध्यप्रदेश
रामलला प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव से भारत जगद्गुरू कहलाने के प्रतिष्ठा पद पर पुनः प्रतिष्ठित हुआ है- बंशीलाल टांक
मन्दसौर। 22 जनवरी को अयोध्या में भव्य रामलला प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव जिसमें एक मत एक मन से सम्पूर्ण भारत ही निमग्न नहीं था बल्कि विदेशों में भी उसी उत्साह-उल्लास-उमंग से मनाया गया मानो रामलला केवल भारत में ही नहीं बल्कि उनके राष्ट्र को भी गौरवान्वित सम्मानित करने पधार गये हो परन्तु इसके विपरीत एक वरिष्ठ राजनयिक अधिवक्ता श्री कपिल सिब्बल द्वारा प्राण प्रतिष्ठा के 10 दिन बाद 1 फरवरी को प्रिंट मीडिया के एक प्रतिष्ठित अखबार के माध्यम से प्राण प्रतिष्ठा के संबंध में इस प्रकार जो वक्तव्य दिया है कि इस महोत्सव से भारत गणतांत्रिक मूल्यों से भटका है। टिप्पणीकार स्वयं देश के प्रसिद्ध बुद्धिवैत्ता है। यदि उन्होंने भारत में जन्म लिया है, सचमुच यदि वे अपने को भारतवासी एक सच्चे हिन्दुस्तानी मानते है तो उनके संज्ञान में अच्छी प्रकार होगा कि लगभग 250 साल की अंग्रेजी गुलामी से 1947 में देश आजाद हुआ और स्वनाम धन्य डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी के द्वारा लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारू रूप में सम्मान के साथ संचालित करने के लिये जो संविधान बनाया उसे प्रत्येक हिन्दुस्तानी सहर्ष स्वीकार पालन करने को तत्पर रहा और आज भी है और जब तक लोकतंत्र है कायम रहेगा।
लोकतंत्र भारत के संविधान को बने 75 वर्ष हुए है परन्तु भारत करोड़ों वर्ष प्राचीन महान आदर्श संस्कृति जिसे सनातन संस्कृति कहा जाता है और इसी के आधार पर भारत विश्वगुरू कहा गया है जिस संस्कृति को अपना कर भगवान राम लाखों वर्ष पश्चात भी मर्यादा पुरूषोत्तम कहे जाकर पूजे जाते रहे है। आजादी के पश्चात् राम राज्य की कल्पना स्वयं पूज्य बापू गांधीजी ने की थी उसी की स्थापना का 500 वर्षों के पश्चात् सद्प्रयास यदि पुनः हुआ है तो इससे भारत गणतंत्र मूल्यों से भटका नहीं है बल्कि अपनी प्राचीन सनातन संस्कृति की पटरी पर पुनः वापस लौटा है।
माननीय प्रधानमंत्री मोदीजी पर यह आक्षेप की प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग नहीं लेना था। आक्षेप लगाने से पहले माननीय सिब्बल साहब भूल गये कि मोदीजी भारत के प्रधानमंत्री बाद में है पहले वै भी भारत के नागरिक है और एक नागरिक होने के नाते संविधान अनुसार जैसा स्वयं सिब्बल साहब ने स्वीकार किया है प्रत्येक नागरिक को समानता और अपनी उपासना पद्धति और पंथ के प्रचार प्रसार के अभ्यास की स्वतंत्रता का अधिकार है तो क्या मोदीजी को अधिकार नहीं है और जब मोदीजी ने इसका पालन कर यदि महोत्सव में एक नागरिक होने के नाते मुख्य यजमान की हैसियत से जिसकी प्रत्येक धार्मिक उत्सव में आवश्यकता होती है बनकर भाग लेने मात्र से कैसे कहा जा सकता है कि इससे हमारी संवैधानिक संस्कृति को क्षति पहुंची है। यदि किसी प्रधानमंत्री के किसी धार्मिक आयोजन में सहभागिता करने से यदि गणतंत्र के स्वरूप में परिवर्तन होने का कहा जायेगा तो क्या फिर अधार्मिक आयोजन में भाग लेंगे, विचारणीय है।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का यह उदाहरण देना कि उन्होनंे सिंगापुर के चट्टेरिया हिन्दू मंदिर में संबोधन और चंदा तभी स्वीकार किया जब गैर हिन्दूओं को भी मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी। जहां तक रामलला राम मंदिर में जब से प्राण प्रतिष्ठा और दर्शन खुले है लाखों श्रद्धालु बड़ी श्रद्धा-भक्ति प्रेम-विश्वास और अनुशासित होकर प्रातः 6 से रात्रि शयन तक दर्शन को आ जा रहे है परन्तु किसी भी दर्शनार्थी से यह नहीं पूछा जा रहा है कि तुम हिन्दू हो अथवा गैर हिन्दू और पूछा भी क्यों जायेगा जबकि राम मंदिर के इस महोत्सव की मुस्लिम समुदाय ने भगवान राम के इस महोत्सव को गौरवान्वित मानते हुए इसके प्रति अपनी श्रद्धा भक्ति से दिल से स्वीकार किया है। इतना ही नहीं जिस समय रामानन्द सागरजी का धारावाहिक रामायण सीरियल प्रारंभ होता था भगवान राम के आदर्शों से प्रभावित आकर्षित होकर 45 मिनट तक मुम्बई का एक मुस्लिम परिवार सब कुछ छोड़कर टीवी के सामने बैठ जाता था। उस समय उसका मीडिया में वक्तव्य भी छपा था कि उसके लड़के जब घर से बाहर धंधे पर जाते थे तो कभी प्रणाम-सलाम करके नहीं जाते थे परन्तु रामायण सीरियल देखने के बाद प्रणाम कर दुआएं लेकर जाने लगे। ऐसे ओर कई उदाहरण है। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम राष्ट्र में तो राममंदिर-रामलीला जैसे आयोजन होते है तो भारत में भगवान राम के अवतरित स्थान के अयोध्या महोत्सव में जैसी की भारत की आदि सनातन परम्परा रही है उस देश का राजा (प्रधान) सहभागी होता है तो इसमें हर्ज ही क्या है। उज्जैन की महाकाल की शाही सवारी जगन्नाथपुरी में भगवान जगदीश के रथ आदि धार्मिक आयोजनों में वहां के राजा कलेक्टर, सी.एम. जो भी अधिकृत ही भाग लेकर सलामी (प्रणाम) करते है। इतना ही नहीं धार्मिक-सामाजिक अथवा राजनीतिक किसी भी विशिष्ट आयोजन में यदि किसी जनप्रतिनिधि, सामाजिक कार्यकर्ता अथवा संत महापुरूषों को आमंत्रित करने पर वह उसमें भाग लेता ही है यही तो हमारे लोकतंत्र की विशेषता और महानता है।
ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामलला के प्राण प्रतिष्ठा आयोजन में प्रधानमंत्री नहीं बल्कि भारत के नागरिक की हैसियत से यजमान के रूप में सहभागी होना न तो भारत गणतांत्रिक मूल्यों से भटका है और नहीं हमारे संवैधानिक संस्कृति की क्षति हुई है बल्कि भारत ही नहीं पूरे विश्व में भारतीय आदर्श सनातन संस्कृति की सराहना हुई है।
अतः भगवान राम के इस विश्वव्यापी महोत्सव के संबंध में किसी को भी अनेपक्षित टिप्पणी-व्यक्तव्य नहीं देते हुए देश का गौरव बढ़ाने वाले इस ऐतिहासिक भव्य आयोजन में यदि कोई मन के दुराग्रहवश भाग नहीं ले पाया तो रामलला के दर्शन करने जरूर जाना चाहिये क्योंकि रामलला की तो स्पष्ट घोषणा है-सम्मुख होई जीव जब हीं। जन्म कोटी अद्य नासों तबहीं।
लोकतंत्र भारत के संविधान को बने 75 वर्ष हुए है परन्तु भारत करोड़ों वर्ष प्राचीन महान आदर्श संस्कृति जिसे सनातन संस्कृति कहा जाता है और इसी के आधार पर भारत विश्वगुरू कहा गया है जिस संस्कृति को अपना कर भगवान राम लाखों वर्ष पश्चात भी मर्यादा पुरूषोत्तम कहे जाकर पूजे जाते रहे है। आजादी के पश्चात् राम राज्य की कल्पना स्वयं पूज्य बापू गांधीजी ने की थी उसी की स्थापना का 500 वर्षों के पश्चात् सद्प्रयास यदि पुनः हुआ है तो इससे भारत गणतंत्र मूल्यों से भटका नहीं है बल्कि अपनी प्राचीन सनातन संस्कृति की पटरी पर पुनः वापस लौटा है।
माननीय प्रधानमंत्री मोदीजी पर यह आक्षेप की प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग नहीं लेना था। आक्षेप लगाने से पहले माननीय सिब्बल साहब भूल गये कि मोदीजी भारत के प्रधानमंत्री बाद में है पहले वै भी भारत के नागरिक है और एक नागरिक होने के नाते संविधान अनुसार जैसा स्वयं सिब्बल साहब ने स्वीकार किया है प्रत्येक नागरिक को समानता और अपनी उपासना पद्धति और पंथ के प्रचार प्रसार के अभ्यास की स्वतंत्रता का अधिकार है तो क्या मोदीजी को अधिकार नहीं है और जब मोदीजी ने इसका पालन कर यदि महोत्सव में एक नागरिक होने के नाते मुख्य यजमान की हैसियत से जिसकी प्रत्येक धार्मिक उत्सव में आवश्यकता होती है बनकर भाग लेने मात्र से कैसे कहा जा सकता है कि इससे हमारी संवैधानिक संस्कृति को क्षति पहुंची है। यदि किसी प्रधानमंत्री के किसी धार्मिक आयोजन में सहभागिता करने से यदि गणतंत्र के स्वरूप में परिवर्तन होने का कहा जायेगा तो क्या फिर अधार्मिक आयोजन में भाग लेंगे, विचारणीय है।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का यह उदाहरण देना कि उन्होनंे सिंगापुर के चट्टेरिया हिन्दू मंदिर में संबोधन और चंदा तभी स्वीकार किया जब गैर हिन्दूओं को भी मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी। जहां तक रामलला राम मंदिर में जब से प्राण प्रतिष्ठा और दर्शन खुले है लाखों श्रद्धालु बड़ी श्रद्धा-भक्ति प्रेम-विश्वास और अनुशासित होकर प्रातः 6 से रात्रि शयन तक दर्शन को आ जा रहे है परन्तु किसी भी दर्शनार्थी से यह नहीं पूछा जा रहा है कि तुम हिन्दू हो अथवा गैर हिन्दू और पूछा भी क्यों जायेगा जबकि राम मंदिर के इस महोत्सव की मुस्लिम समुदाय ने भगवान राम के इस महोत्सव को गौरवान्वित मानते हुए इसके प्रति अपनी श्रद्धा भक्ति से दिल से स्वीकार किया है। इतना ही नहीं जिस समय रामानन्द सागरजी का धारावाहिक रामायण सीरियल प्रारंभ होता था भगवान राम के आदर्शों से प्रभावित आकर्षित होकर 45 मिनट तक मुम्बई का एक मुस्लिम परिवार सब कुछ छोड़कर टीवी के सामने बैठ जाता था। उस समय उसका मीडिया में वक्तव्य भी छपा था कि उसके लड़के जब घर से बाहर धंधे पर जाते थे तो कभी प्रणाम-सलाम करके नहीं जाते थे परन्तु रामायण सीरियल देखने के बाद प्रणाम कर दुआएं लेकर जाने लगे। ऐसे ओर कई उदाहरण है। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम राष्ट्र में तो राममंदिर-रामलीला जैसे आयोजन होते है तो भारत में भगवान राम के अवतरित स्थान के अयोध्या महोत्सव में जैसी की भारत की आदि सनातन परम्परा रही है उस देश का राजा (प्रधान) सहभागी होता है तो इसमें हर्ज ही क्या है। उज्जैन की महाकाल की शाही सवारी जगन्नाथपुरी में भगवान जगदीश के रथ आदि धार्मिक आयोजनों में वहां के राजा कलेक्टर, सी.एम. जो भी अधिकृत ही भाग लेकर सलामी (प्रणाम) करते है। इतना ही नहीं धार्मिक-सामाजिक अथवा राजनीतिक किसी भी विशिष्ट आयोजन में यदि किसी जनप्रतिनिधि, सामाजिक कार्यकर्ता अथवा संत महापुरूषों को आमंत्रित करने पर वह उसमें भाग लेता ही है यही तो हमारे लोकतंत्र की विशेषता और महानता है।
ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामलला के प्राण प्रतिष्ठा आयोजन में प्रधानमंत्री नहीं बल्कि भारत के नागरिक की हैसियत से यजमान के रूप में सहभागी होना न तो भारत गणतांत्रिक मूल्यों से भटका है और नहीं हमारे संवैधानिक संस्कृति की क्षति हुई है बल्कि भारत ही नहीं पूरे विश्व में भारतीय आदर्श सनातन संस्कृति की सराहना हुई है।
अतः भगवान राम के इस विश्वव्यापी महोत्सव के संबंध में किसी को भी अनेपक्षित टिप्पणी-व्यक्तव्य नहीं देते हुए देश का गौरव बढ़ाने वाले इस ऐतिहासिक भव्य आयोजन में यदि कोई मन के दुराग्रहवश भाग नहीं ले पाया तो रामलला के दर्शन करने जरूर जाना चाहिये क्योंकि रामलला की तो स्पष्ट घोषणा है-सम्मुख होई जीव जब हीं। जन्म कोटी अद्य नासों तबहीं।