आलेख/ विचारमंदसौर जिलासीतामऊ

सनातन केवल धर्म ही नहीं, जीवन मूल्यों का सृजक भी

सनातन केवल धर्म ही नहीं, जीवन मूल्यों का सृजक भी

डॉ अखिलेश कुमार द्विवेदी(वीएस राजनीति शास्त्र)

डॉ रघुबीर सिंह शा. महाविद्यालय सीतामऊ, जि.मंदसौर मप्र 

धर्म शब्द की चर्चा जब हमारे समक्ष आती है तो, हमारे जहन में विभिन्न प्रकार की भ्रांतियां उत्पन्न होने लगती हैं।अतः आवश्यकता है कि हम धर्म शब्द के अर्थ को भलीभांति समझें। धर्म का अर्थ होता है, “धारण करने योग्य” अर्थात वह आचरण,विचार, सिद्धांत या मूल्य जिन्हें अपनाना उचित हो और जो मनुष्य को जीवन जीना सिखाए व उसके गतिविधि से किसी भी तरह का ऐसा विकार उत्पन्न ना हो जिसके प्रभाव से भविष्य की पीढ़ी पर इसका नकारात्मक असर पड़े।कालांतर में धर्म को पंथ अथवा संप्रदाय के भावना से अलग कर विभिन्न नाम से जाना जाने लगा है, परंतु सच्चाई यह है कि धर्म कभी भी अलग-अलग नहीं हो सकते। विद्वानों का मानना है कि यह जो अलग-अलग धर्म की संकल्पना है, वह कालांतर में किसी विकृति का परिणाम हो सकती है।ऐसी मान्यता है कि दुनिया भर में प्रचलित विभिन्न धर्मों की जड़े भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न मूल धर्म ‘सनातन’ से जुड़ती है और जिसके ‘आदि’ का कोई प्रमाण नहीं मिलता है और न ‘अंत’ की कोई संभावना है।क्योंकि सनातन का आधार वैज्ञानिक है और विज्ञान भी ऐसा है कि किसी भी तथ्य के प्राथमिक परीक्षण का भी कोई दुष्परिणाम प्राप्त नहीं होता अर्थात वर्तमान विज्ञान से कहीं ज्यादा सशक्त है सनातन का विज्ञान। ऐसा सब सनातन के वैज्ञानिकों जिन्हें हम ऋषि, मुनि, तपस्वी के नाम से भी जानते हैं उनकी साधना के बदौलत सम्भव है और उनकी ‘प्रकल्पना’ सत-प्रतिशत परिणाम देती है।

‘सनातन’ अर्थात “सदा रहने वाला या शाश्वत” जिसे हम आमतौर पर हिंदू धर्म के नाम से भी जानते हैं जीवन के प्रति एक समग्र एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है। यह आध्यात्म के माध्यम से विज्ञान, पर्यावरण, सामाज, नैतिकता एवं मनुष्य के व्यक्तिगत पहलुओं को आपस मे मनोवैज्ञानिक विधि से जोड़ता है, ताकि हमारी इस वसुंधरा पर सुखमय जीवन चिरकाल तक बना रहे। हमारी सनातन संस्कृति सकारात्मक कर्तव्यों पर जोर देती है, नकारात्मकता के लिए इसमें कोई स्थान रिक्त नहीं होता।

अक्सर लोग सनातन धर्म एवं वैदिक संस्कृति को एक दूसरे का पर्याय मान बैठते हैं जो कि गलत धारणा है। वैदिक संस्कृति सनातन धर्म का केवल एक हिस्सा है, जिसका मूल आधार वेद हैं जबकि संपूर्ण सनातन के आधार में वेद सहित उपनिषद, पुराण और अन्य ग्रंथों को भी महत्वपूर्ण माना जाता है। संयोगवश कालांतर में सनातन से पृथक होकर अलग धर्मों की भी स्थापना की गई एवं वैदिक संस्कृति, परंपरा, और रीति रिवाजों के प्रमाणिकता को बिना जांचे ही इस धर्म को विसंगतिपूर्ण कहकर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया जाने लगा व सनातन के अनुयायियों को भ्रमित किया जाने लगा ,जबकि सनातन के प्रति भ्रम फैलाने वालों के तर्क पूर्णरूपेण निराधार है। वैदिक संस्कृति में आश्रम व्यवस्था, अनुष्ठान, हवन ,यज्ञ,सोलह संस्कार आदि की परंपरा प्रचलित है,और जिसे अक्सर गैर- सनातनियों द्वारा ढकोसला मात्र करार दिया जाता है, जो कि सरासर गलत है। सनातन की प्रमाणिकता के पक्ष मे मै एक ज्वलंत उदाहरण वैदिक संस्कृति के अंतर्गत व्यक्ति के सोलह संस्कारों में से एक यज्ञोपवीत संस्कार के समय विधान के बारे में चर्चा करूंगा जिसमें शौच के पश्चात हांथ धोने एवं कुल्ला करने/ मुंह को अच्छे तरीके से साफ करने की विधि को बहुत गहनता से समझाया जाता है,जाहिर है कि हमारा सनातन जीवाणु जनित बीमारी एवं उसकी रोकथाम से भलीभांति वैदिक काल से ही परिचित था, ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। अत: सनातन वैज्ञानिक अनुसंधान के तथ्यों पर आधारित निर्धारित सिध्दांतों का परिणाम है,फिर भी इसके अंतर्गत लंबे अरसे से प्रचलित विभिन्न रीति-रिवाज, परंपराएं एवं संस्कृति में कुछ विसंगति स्वाभाविक हैं, क्योंकि आधुनिक विज्ञान भी यह मानता है कि किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत को जब हम व्यवहार में लाते हैं और उसका उपयोग नियतकाल से अधिक समय तक एवं निर्धारित पद्धति से इतर किया जाता है तो, ऐसी परिस्थिति में सटीक परिणाम प्राप्त नहीं होते। अतः हम कह सकते हैं कि हमारे आधुनिक विज्ञान का शोध साहित्य सनातनी ग्रंथ ही हैं। यह बात तो सुनिश्चत है की वैदिक काल में आवश्यकताएं सीमित थी। कहा जाता है कि “आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है” अतएव आज की परिस्थिति एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए हमारे रीति-रिवाज एवं परंपराओं में आवश्यक परिवर्तन वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है परंतु सनातन के मूल को समूल रूप से परिवर्तित नहीं करना चाहिए। “परिवर्तन प्रकृति का नियम है” इस ‘ध्येय’ का विरोधी सनातन कभी नहीं रहा है।अतएव सनातन ही सत्य है

(यह लेख विभिन्न स्रोतों से प्राप्त तथ्यों पर आधारित है)

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